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________________ श्रीसवाल जाति का इतिहास लालचन्द्र भगवानदास ने उक्त ग्रन्थ प्रकाशित किया। इसमें विभिन्न जैन ग्रन्थागारों और शिलालेखों का विवरण है। आपने बाईस शिलालेखों की नकले लीं, जिनमें एक शिलालेख लक्ष्मीकांतजी के हिन्दू मन्दिर में लगा हुआ है और शेष शिलालेख जैन मन्दिरों में लगे हुए हैं। सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् बाबू पूरणचन्द्रजी नाहर भी सन् १९२५ में जैसलमेर पधारे थे। आप वहाँ पर लगभग दस दिन रहे और जैसकमेर के अतिरिक लोद्रवा, अमरसागर और देवीकोट आदि स्थानों को भी गये । आपने इन सब स्थानों के शिलालेखों, प्रशस्तियों, मूर्तियों और ग्रंथागारों का अवलोकन किया। भापको अमरसागर में एक नवीन शिक्षालेख मिला जिसे आपने अपनी टिप्पणी सहित पूना के जैन साहित्य संशोधक नामक त्रैमासिक में प्रकाशित किया। इतना ही नहीं आपने जैसलमेर, लोद्रवा, अमरसागर के जैन मन्दिरों, शिलालेखों तथा प्रशस्तियों का बहुत ही सुन्दर संग्रह भी प्रकाशित किया, जिसका नाम “ Jain Inscriptions Jaisalmer" है।* इस ग्रंथ में जैसलमेर के जैन मन्दिरों और शिलालेखों पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला गया है। हम आप ही की खोजों के प्रकाश में जैसबमेर के मन्दिरों, शिलालेखों, मूर्ति पर खुदे हुए लेखों आदि का ऐतिहासिक विवेचन करते हैं। श्री पार्श्वनाथजी का मन्दिर जैसलमेर में यह मन्दिर सबसे प्राचीन है। बारहवीं शताब्दी के मध्य में जैसलमेर नगर की नींव डाली गई । इसके पहले भाटियों की राजधानी लोद्रवा में थी । उस नगर में भी जैनियों की बहुत बड़ी बस्ती थी । जब लोद्रवा का नाश हुआ तब राजपूतों के साथ जैन भोसवाल भी जैसलमेर आये और वे उस समय अपने साथ भगवान पार्श्वनाथ की पवित्र मूर्ति को ले आये । सं० १४५९ में खरतर - norita श्री जिनराजसूरि के उपदेश से श्री सागरचन्द्रसूरि ने एक जैन मन्दिर की नींव डाली और संवत् १४७३ में श्री जिमचन्द्रसूरिजी के समय में इसकी प्रतिष्ठा हुई। यह मन्दिर श्री पार्श्वनाथजी के मंदिर के नाम से मशहूर है। ओसवाल वंश के सेठ जयसिंह नरसिंह रांका ने इसकी प्रतिष्ठा कराई थी । साधु कीर्त्तिराजजी नामक एक जैन मुनि ने उक्त मंदिर में एक प्रशस्ति लगाई। श्री जयसागर गप्पी ने इस प्रशस्ति का संशोधन किया और धन्ना नाम के कारीगर ने इसे खोदा था । इस प्रशस्ति में उक्त मंदिर की प्रतिष्ठा तथा अन्य उत्सवों का उल्लेख है । यह अधिकाँश में गद्य में है। इसके अतिरिक्त इसमें उन सेठों की वंशावली है जिन्होंने इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। ये सेठ उकेश वंशीय रांका गौत्र के थे। इस प्रशस्ति में * यह ग्रंथ बाबू पूरणचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल० ४८ इण्डियन मिररस्ट्रीट कलकत्ता से प्राप्त हो सकता है। १४६
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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