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________________ राजनैतिक और सैनिक महत्व उक्त कप्तान तथा रामसिंहजी के सुप्रबन्ध से मेवाड़ राज्य की बिगड़ी हुई आर्थिक दशा कुछ सुधर गई और ब्रिटिश गवर्नमेंट के चढ़े हुए खिराज में से ४००००० रुपये तथा अन्य छोटे बड़े कर्ज अदा कर दिये गये । रामसिंहजी की कारगुजारी से प्रसन्न होकर महाराणा ने इन्हें विक्रम संवत् १८८३ में जयनगर, कंकरोल, दोलतपुरा और बलधरखा नामक चार गाँव जागीर में वक्षे। महाराणा जवानसिंहजी की गद्दीनशीनी के बाद फिजूल खर्ची की बजह से राज्य की आय घट गई और खिराज के ७००००० रुपये चढ़ गये । इसी समय महाराणा को किसी ने यह संदेह दिला दिया कि रामसिंहजी प्रतिवर्ष वचत के एक लाख रुपये हजम कर जाते हैं। इस पर महाराणा ने मेहता रामसिंहजी को अलग कर मेहता शेरसिंहजी को उनके स्थान पर नियुक्त किया । मगर जब उनसे भी खर्च पर नियंत्रण न हुआ तो वापस महाराणा ने रामसिंहजी को अपना प्रधान बनाया । इस बार उन्होंने पोलिटिकट एजंट से लिखा पढ़ी करके २ लाख रुपये जो ब्रिटिश सरकार की ओर से मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेशों के प्रबन्ध के लिए महाराणा को मिले तथा एजंट के निर्देश के अनुसार खर्च हुए थे माफ करवा दिये और चढ़ा हुआ खिराज भी चुका दिया। इससे इनकी बड़ी नेकनामी हुई और महाराणा ने इन्हें सिरोपाव आदि देकर सम्मानित किया। राजपूताने के तत्कालीन पोलिटिकल एजंट कप्तान कॉव का रामसिंहजी पर बड़ा विश्वास था । जब तक रहे तब तक रामसिंहजी अपने शत्रुओं के षड्यंत्र के बीच भी बराबर अपने पद पर बने रहे । कसान कॉव के जाने के बाद रामसिंहजी के शत्रुओं का दाव चल गया और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। कप्तान कॉव रामसिंहजी की कार्य कुशलता से भली-भाँति परिचित था । इसलिये उसने कलकत्ते से रामसिंह जी के अच्छे कामों की याद दिलाते हुए महाराणा से उनकी मान मर्यादा के रक्षा करने की सिफारिश की । मेहता रामसिंहजी वड़े राजनीतिज्ञ और गहरे विचारों के व्यक्ति थे। रियासत के भीतरी कार्यों में उनका मस्तिष्क अच्छा चलाता था । महाराणा भीमसिंहजी के समय से महाराणा और सरदारों के बीच छदूँद और चाकरी के लिए झगड़ा चला आरहा था, उसे मिटाने के लिए वि० सं० १८८४ में मेवाड़ के तत्कालीन पोलिटिकल एजंट कप्तान कॉव ने मेहता रामसिंहजी सलाह से एक कौल नामा तय्यार किया। मगर उस समय उस पर दोनों पक्षों में से किसी के हस्ताक्षर न हो सके । तब रामसिंहजी ने वि० सं० १८९६ में मेजर राबिन्सन से कहकर नया कोलनामा करवाया। इन्हों रामसिहजी के उद्योग से वि० सं० १८१७ में भीलों की सेना संगठित किये जाने का कार्य औरम्भ हुआ। वि० सं १९०३ में महाराणा को यह संदेह हुआ एक षड्यन्त्र बागौर के महाराज शेरसिंहजी के पुत्र गाडूलसिंह की अध्यक्षता में उनको जहर दिलाने के लिये रचा जा रहा है जिसमें रामसिंह भी शामिल है। यह सुनते ही रामसिंहजी मेवाड़ छोड़ कर अजमेर चले १२
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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