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________________ ( २६ ) न्यायकी दृष्टिसे भी ऐसा ही करना उचित है । एक जीवको जबरदस्ती से भूखा रखकर, दूसरे जीवको बचाना न्यायकी दृष्टिसे असंगत है । यह तो ठीक वसा ही है जैसा कि एकको चपत लगाना और दूसरेका उपद्रव दूर करना । ऐसे राग द्वेषके कार्योंसे साधु कोसों दूर रहते हैं। जहां दो जीवोंमें आपसमें कलह हो रहा हो वहां साधु यदि उपदेश द्वारा कुछ कार्य कर सकते हैं तो ही करते हैं । धर्म उपदेशका है, न की जबरदस्तीका। जहां उपदेश नहीं दिया जा सकता या उसका असर होना असम्भव मालूम होता है वहां साधु रागद्वेष रहित हो मौन धारण करते हैं या बहांसे उठकर चले जाते हैं । जैन धर्म नहीं चाहता कि किसीके दुगुणोंको भी जोर जबरदस्तीसे हटाया जाय । स्वामी भीषणजने ठीक ही कहा है:"मूला गाजर ने काचो पानी, कोई जोरी दावे ले खोसी रे। जे कोई वस्तु छुडावे बिन मन, इण विधि धर्म न होसी रे॥ भोगी ना कोई भोगज रूंध, बले पाडै अन्तरायो रे। . महा मोहनी कर्म जु बाँधे, दशाश्रुतखन्धमें बतायो रे॥" हरी वनस्पति और सचित्त पानी पीनेमें एकेन्द्रिय जीवकी हत्या होती है अतः पाप है परन्तु अगर कोई हरी वनस्पति और सचित पानी पीता हो तो उसे जबरदस्ती छीन लेना जैन दृष्टिसे धर्म नहीं है। इसी प्रकार अहिंसाका सिद्धान्त है-अहिंसा माने यह नहीं कि हिंसा-प्रेमियोंकी हिंसा को हिंसा द्वारा अर्थात् बलपूर्वक रोका जाय। इस प्रकारकी जबरदस्ती या बलप्रयोगमें तो हृदयका परिवर्तन नहीं है । बिना मन कोई काम करा लेनेमें धर्म नहीं है । वैसे तो यह संसार ही हिंसामय है, जगह जगह हिंसाएँ हो रही हैं, परन्तु उन्हें रोकना असंभव है। मनुष्यको स्वयं मन वचन और
SR No.032674
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Terapanthi Sabha
PublisherMalva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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