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________________ ( 8 ) उत्पात बुद्धि थोड़ी ही होती है। उस सेवक कविके मुखसे आकस्मिक 'तेरापन्थी' नामकरण सुनकर स्वामीजीने उसका बहुत ही सुन्दर अर्थ लगाया। उन्होंने कहा कि जिस पथमें पांच महाव्रत, पांच सुमति और तीन गुप्ति हैं, वही तेरापन्थ अथवा जो पन्थ, हे प्रभु तेरा है, वही तेरापन्थ है। ___ इस घटनाके बाद सम्बत् १८१७ आषाढ़ सुदी १५ के दिन स्वामी भीखणजीने भगवान्को साक्षी कर पुनः नवीन दीक्षा ग्रहण की और उनके साथमें जो अन्य साधु निकलेथे, दूसरी जगह चातुर्मासके पहिले उन्हें भी ऐसी ही करने कह दिया था। चातुर्मास समाप्त होने पर फिर सभी साधु एकत्रित हुए और जिनकी श्रद्धा और आचार आपसमें मिली वे सामिल रहे बाकीके अलग कर दिये गये । इस प्रकार तेरापन्थी मतकी स्थापना हुई और बादमें वह क्रमशः वृद्धि होता गया। इस प्रकार मतकी स्थापना तो हो गयी परन्तु आगेका मार्ग सरल न था । रघुनाथजीने बड़े जोरों से लोगोंको भड़काना शुरू किया। रहनेके लिये स्थान तक न मिलता था । घी दूधकी तो बात दूर रही रूखा सूखा आहार भी पूरा न मिलता था। पीनेके पानीके लिए भी कष्ट उठाना पड़ता पर स्वामीजी इन विघ्न बाधाओंसे घवराकर मार्ग-च्युत न हुए। उन्होंने तो यह सब सोच विचार करके ही अपना मार्ग निश्चित किया था और उसके लिए वे अपने प्राणोंको होड़ भी लगा चुके थे। स्वामी जीतमलजीने ठीक ही कहा है 'मरण धार शुद्ध मग लियो ।' अर्थात् उन्होंने प्राण देने तकका निश्चय करके ही प्रभुके सच्चे मार्गको अङ्गीकार किया था। इस प्रकारकी कठिनाइयां एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, परन्तु लगातार कई वर्षों तक सहनी पड़ी थी, पर स्वामीजीने उनके सामने कभी मस्तक नहीं काया। इस प्रकार कठिनाइयोंसे लड़ते-लड़ते तथा दुःसह परिषहोंको समभाव पूर्वक सहन करते-करते उन्होंने देखा कि लोग सच्चे जैन धर्मसे कोसों दूर है, अधिकांश लोग गतानुगतिक है और सत्यासत्यका निर्णयमें अस
SR No.032674
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Shwetambar Terapanthi Sabha
PublisherMalva Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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