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________________ ( ८ ) 'आए हुए राज्य को भी त्याग की भावना से ठुकरा देना तथा इन उभय आश्चर्यो को देख तत्रस्थ जनता का विस्मित हो धन्य २ की अविरल ध्वनि के साथ ही सूरिजी के चरणों में शिर झुका लेना इत्यादि कारणों से तत्काल ही सारे के सारे नगर और पार्श्ववर्त्ती प्रदेशों में भी सूरिजी के अलौकिक सामर्थ्य की धाक जम गई और राजा प्रजा हर्ष से मुग्ध तथा आश्चर्य से गर्क हो नगर को लौट गए और जहां देखो वहां ही आचार्य महाराज के अद्भुत गुणों का गान और भूरि २ प्रशंसा होने लगी । ठीक ही है "चमत्कार को नमस्कार हुआ ही करता है ।" दूसरे दिन हाथी, घोड़े, ऊंट, रथ, पैदल पलटन एवं मय गाजा बाजा के राजा प्रजा सूरिजी को वन्दन एवं आपकी अमृतमय देशना का पान करने को सूरिजी के पास आए । सूरिजी ने ज्योंही जैनधर्म के मूल एवं मुख्य सिद्धान्त बड़ी योग्यता के साथ उपस्थित लोगों को सुनाये, त्योंही उन्होंने सत्य धर्म को समझ कर मिध्यात्व का परित्याग कर दिया और सबसे पहिले सूर्यवंश मुकुटमणि महाराजा उत्पलदेव ने शिर का मुकुट उतार, जमीन पर घुटने टेक सूरिजी के चरणों में प्रणाम कर गुरु मंत्र की याचना की । जब स्वयं राजा भी नम गए तो मंत्री क्यों कर पीछे रह सकता । उसने भी मस्तक से सिरपेंच ( पाग ) हाथ में ले अपने स्वामी का अनुकरण किया । तदनन्तर मंत्री के पुत्र ने भी उन्हीं की वृत्ति की जिसको कि सर्प ने डशा था और सूरिजी ने उसे निर्विष किया था । इसी प्रकार राजकन्या, राजपत्नी और नगर के अनेकों क्षत्रादि नरनारी नत मस्तक हो खड़े हो गए। इन सबका * कई लोग यह भी कह देते हैं कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने ओसियां
SR No.032654
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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