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________________ खूब जोरदार व्याख्यान देने लगे । पर चिरकाल के संस्कार-संपन्न व्यक्ति अपने दूषित संस्कारों और रूढ़ि को शीघ्र ही छोड़ने को कब तैयार थे । अतः वहाँ के नामधारी पण्डित ब्राह्मणों के साथ प्राचार्य श्री का शास्त्रार्थ भी हुआ, पर आखिर अहिंसा भगवती के चरणों में सब को शिर झुकाना ही पड़ा; अर्थात् वहाँ ( पद्मावती में ) भी ४५००० घरों के लाखों राजपूत आदि लोगों ने जैन-धर्म को स्वीकार कर लिया। तब आचार्यदेव ने उनके आत्म-कल्याणार्थ प्रभु शान्तिनाथ का एक भव्य मन्दिर बनवा दिया। ये ही लोग आगे चलकर श्रीमाल एवं प्राग्वट (पोरवालों) के नाम से प्रख्यात हुए। आचार्य स्वयंप्रभसूरि अपने शेष जीवन में आबू और श्रीमाल नगर के प्रदेशों में भ्रमण कर लाखों अजैनों को जैन बनाने में भगीरथ प्रयत्न कर अन्त में मुनि रत्नचूड़को अपने पट्ट पर स्थापन कर आप श्री गिरगज तीर्थ पर जाकर आराधना पूर्वक अनशन कर वीर निर्वाण के पश्चात् ५२ वें वर्ष में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन स्वर्गधाम को प्राप्त हुए । अतएव समग्र जैन समाज और विशेषकर श्रीमालपोरवालों का खास कर्त्तव्य है कि वे प्रत्येक वर्ष की चैः शु०१ के दिन आचार्य श्री का जयन्ति-महोत्सव बड़े ही समारोह से मना कर अपने आपको कृत-कृत्य समझे। आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पट्ट प्रभाकर आचार्य रत्नप्रभसूरि ( रत्नचूड़ ) हुए। आपका जन्म विद्याधर वंश में हुआ, अतः आप स्वभावतः अनेक विद्याओं से परिपूर्ण थे। आचार्य पद प्राप्त होते ही आपने सोचा कि "क्या मैं मेरा जीवन पूर्वाचार्य के बनाए हुए श्रावकों पर ही समाप्त कर दूंगा ? नहीं ! मुझे भी
SR No.032654
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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