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________________ ( ४ ) में एक तरह से त्राहि त्राहि की पुकार मच गई थी । ऐसे समय में प्रकृति एक ऐसे दिव्य शक्तिशाली एवं क्रांतिकारी महापुरुष की प्रतीक्षा कर रही थी जो इस बिगड़ी को सुधारने में सर्वथा समर्थ हो । ठीक उसी समय आचार्य स्वयंप्रभसूर अपने शिष्य समुदाय के साथ नानां कठिनाइयों का सामना करते हुए क्रमशः श्रीमाल ( भिन्नमाल ) नगर के रम्य उद्यान में आ निकले। उस वक्त वहाँ एक विराट् यज्ञ का आयोजन हो रहा था और उसमें बलि देने को लाखों पशु एकत्रित किये जा रहे थे । जब आचार्यदेव ने इस बात को तत्रस्थ जनता से एवं अपने शिष्यों से सावधानी पूर्वक सुन ली, तब स्वयं राज सभा में उपस्थित होकर "अहिंसा परमोधर्मः" के विषय में जैन और जैनेतर शास्त्रों के अनेक अकाट्य प्रमाण और मानव बुद्धिगम्य विविध युक्तियाँ जनता के सामने रख अपनी ओजस्विनी वाणी और मधुर एवं रोचक भाषण शैली से उपदेश देकर उपस्थित लोगों को मंत्र-मुग्ध कर उन पर ऐसा प्रबल प्रभाव डाला कि कुछ समय पूर्व जिस कर्म को वे श्रेष्ठ बतला रहे थे उसे स्वयं ही निष्ठुर और ति कर्म घोषित करने लगे तथा उस पाशविक प्रवृत्ति से पराङ्मुख होकर आचार्य देव के चरणों में आ शिर झुका दिया। तब आचार्य श्री ने उनको जैन-धर्म के मूल तत्व समझाकर राजा प्रजा के ९०००० घरों के लाखों नर नारियों को जैन-धर्म में दीक्षित कर अपना अनुयायी बना लिया और उन मूक प्राणियों को भी सदा के लिए अभय दान दिलवाया । तदनन्तर आचार्य श्री ने धर्म के सब साधनों में प्रधान साधन- मन्दिर मूर्त्ति की सेवा
SR No.032654
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1937
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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