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________________ : प्रा० ० इ० दूसरा भाम पदानुसरण करते हुए शिलालेख खुदवाए होंगे और चन्द्रगुप्त = चन्द्र-रक्षित तो कवल उसका उपनाम ही जान पड़ता है। - (२६) 'सम्राट् संप्रति' शीर्षक ग्रन्थ में लिखा है कि "सिन्धु नदी के उस पार १२3 के उन सरदारों को जीतकरजिन्हें सम्राट अशोक भी अपने अधीन नहीं कर सका था'कर' वसूल किया था । जिस प्रकार अजातशत्रु राजा के अधीन १६००० करद राज्य थे, उसी प्रकार इनकी संख्या भी उतनी ही थी। इसी प्रकार जब वे दिग्विजय कर स्वदेश वापस लौटे तब सम्राट अशोक के मुँह से ये उद्गार निकले कि "मेरे पितामह चन्द्रगुप्त तो केवल भारत के ही सम्राट थे, किन्तु मेरा पौत्र संप्रति तो संसार भर का सम्राट है।" . इन शब्दों से चन्द्रगुप्त, अशोक और प्रियदर्शिन, इन तीनों के राज्य-विस्तार-मापन का साधन मिल सकता है। - (३०) ऊपर के कुछ मुद्दों की चर्चा के परिणाम स्वरूप हमें यह विश्वास होता है कि संप्रति और प्रियदर्शिन् दो भिन्न व्यक्ति नहीं थे। ऐसी दशा में संप्रति का नाम प्रियदर्शिन क्यों पड़ा, इस बात के जान लेने की भी आवश्यकता है। इसका इतिहास संक्षेप में इस प्रकार है "प्रियदर्शिन के पिता कुणाल सम्राट अशोक के लाडिले पुत्र थे। साथ ही वे ज्येष्ठ पुत्र होने तथा अत्यन्त चालाक और उज्वल कीर्ति प्राप्त करनेवाले दिखाई देने से "युवराज" नियुक्त कर दिये गये थे। महाराज अशोक ने उन्हें लालन-पालन के - (१२३) इसी लेख के पैरा नं. ७ तथा पैरा नं० २७ से मिलान कीजिए।
SR No.032648
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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