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________________ ( ३२ ) "व्यतीत करनेकी आज्ञा माँगी गुरु महाराजने भी सबको योग्य -समझकर प्रत्येककी इच्छा के अनुसार आज्ञा दे दी । तब श्रीस्थूल भद्रजी महाराज भी गुरु महाराजसे विनय पूर्वक बोले, "भमवन्! मैं पाटलिपुत्र में रहनेवाली कोशानामक वैश्याकी चित्रशाला में रह कर षट् रस भोजन करता हुआ चातुर्मास पूर्ण करूँ, यही मेरा अभिग्रह है । गुरु महाराजने इन्हें भी आज्ञा दे दी । और मुनिगण अपने-अपने अभीष्ट स्थानपर चले गये । और उन महात्माओंके तपके प्रभावले सिंहादि पशु सब शान्त हो गये । इधर श्रीस्थूलभद्रजी जब कोशा वेश्याके मकानपर गये, तो कोशाने दूरसेही श्रीस्थूलभद्रजी को देखकर विचारा कि ये प्रकृति से सुकुमार हैं । अतएव चारित्रका बोझ इनसे सहन न हो सका; अतः ये चले आ रहे है। कोशा ऐसा विचारकर हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और स्वागत पूर्वक बोली, - स्वामिन्! तन, मन, धनसब आपका हैं । आज्ञा दीजिये, मैं क्या करूँ ।" · श्रीभद्र बोले, — मुझे और कुछ न चाहिये, तेरी उल चित्र शालाकी | आवश्यकता है। मुझे वहीं चातुर्मास रहना है ।" वेश्याने बड़े हर्ष के साथ इस बातको स्वीकार किया, और मुनिजी वहाँ रहने लगे । कोशा भी श्रीस्थूलभद्रके षट् रस आहार कर लेनेपर उन्हे संयमले विचलित करनेके लिये सोलहों शृंगार करके चित्रशाला में आकर अनेक प्रकारसे हाव-भाव दिखाने लगी, कभी पहले समय में बारह बरसतक श्रीस्थ लभद्रजीने कोश्या के मकान पर रहकर उसके साथ जो विषय सुख भोगा था, उसकी कितनी ही
SR No.032643
Book TitlePatliputra Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherShree Sangh Patna
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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