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________________ ( २ ). उस जमानेके भारतमें तीन बड़ी बड़ी विचार .. ... ..... ... ... .. जिन्हें हम आज देवतावाद, जड़वाद और अध्यात्मवादके नाम से पुकार सकते है। पहली धारा वैदिक ऋषियोंकी उस हैरतभरी निगाह से पैदा हुई थी जो प्राकृतिक दृश्यों और चमत्कारों को देख देख कर उनमें मनुष्योंतर दिव्य शक्तियोंका भान करा रहीं थीं । दूसरी धारा व्यवहार कुशल लोगों की उस टुनियावी दृष्टि की उपज थी, जो मनुष्य के ऐहिक-जीवन को सुखी और सम्पन्न देखना चाहती थी। तीसरी धारा वीतरागी श्रमणोंके उन भरपूर हृदयोंसे निकली थी, जो इस निःसार, दुखमय जीवन से परे किसी अक्षय अमर सच्चिदानन्द जीवनका आभास कर रहे थे । इन्हीं लीनों धाराओं के संगमपर भगवान महार्वीर का जन्म हुआ था । यद्यपि उस समय यह तीनों विचारधारायें अपनी अपनी पराकाष्ठा को पहुँच चुकी थीं-देवतावाद में “एकमेव अद्वितीय ईभर'का भान हो चुका था, जड़वाद अपने लौकिक अभ्युदय के लक्ष्य को चक्रवर्तीयों की निर्वाध समृद्धिसम्पन्न एकछत्र राष्ट्रीयता की ऊचाई तक उठ चुका था और अध्यातमवाद 'निर्विकल्पकैवल्यं' जैसे आत्मा के सर्वोच्च आदर्शको' पाकर परमात्मद की सिद्धि कर चुका था। वह 'सोऽहम्' और तत्वमसि के मम्त्रोंकी दीक्षा देकर सर्वसाधारण हैं आत्मा और परमात्माकी एकता को मान्य बना चुका था-परन्तु कालदोषसे बिगड़कर उस समय यह तीनों धारायें अपने अपने सल्लक्ष्य, सद्ज्ञान और सत्पुरुषार्थ को छोड कर केवल ऊपरी चमत्कारों, मौखिक वितण्डावादों और रूढ़िक क्रियाकाण्डोंमें फंस गई थीं । अहंकार विमूढ़ता और दुराग्रहने इन्हें तेरा-तीन किया हुआ था। इनके पोषक और उपासक कुछ भी रचनात्मक कार्य न करके केवल अपनी स्तुति और दूसरों की निन्दा करने में ही अपनेकी कृत्कृत्य मान रहे थे। पक्षपात इतना बढ़ गया था कि सभी सच्चाई के एक पहलूको देखते जो उन्हें मान्य था, अन्य सभी पहलमों की वे अबहेलना करते थे-ये सब एकान्तवादी बने थे । इनकी बुद्धि कूटस्थ हो चली थी। तब इनमे न दूसरों के विचारों को सुनने और समझन की सहनशीलता थी न दूसरों को अपनानेकी उदारता
SR No.032638
Book TitleItihas Me Bhagwan Mahavir ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJay Bhagwan
PublisherA V Jain Mission
Publication Year1957
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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