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________________ मैने खरवरों के अत्याचारों के सामने पन्द्रह वर्ष तक खूब हीष्य रखा पर आखिर खरतरों ने मेरे धैर्य को जबरन तोड़ से सला। शायद इसमें भी खरतरों ने अपनी विजय समझी होगी। क्योंकि खरतरों ने मेरे लिये तो जो कुछ भला बुग लिखा, उसको मैंने अपना कर्त्तव्य समझ कर सहन कर लिया पर मेरी इस सहनशीलता ने खरतरों का होसला यहाँ तक बढ़ा दिया कि वे लोग परमोपकारी पूर्वाचाय्यों की ओर भी अपने हाथों को बढ़ाने लग गये जैसे कि "तुम्हारे रत्नप्रभसूरि किस गटर में घुस गये थे ?" "उनके बनाये अठारह गौत्र क्या करते थे ?" "न तो रत्नप्रभ आचार्य हुये और न रत्नप्रभ ने ओसवाल ही बनाये थे ?" "ओसियों में सवालक्ष श्रावक जिनदत्तरि ने बनायेथे?" "उन पतित आचार वालों ने अपना कँवला-ढीला गच्छ बना लिया" इत्यादि ऐसी अनेक बातें लिख दी हैं। भला ! जिनकी नसों में अपने पूर्वजों का थोड़ा भी खून है वह ऐसी अपमानित बातों को कैसे सहन कर सकते हैं ? केवल एक मेरे ही क्यों पर इन खरतरों की पूर्वोक्त अघटित बातों से समस्त जैनसमाज के हृदय को आपात पहुँच जाना एक स्वाभाविक ही है । अतः खरतरों की पूर्वोक्त मिथ्या बातों से गलत फहमी न फैलजाय अर्थात् इन झूठी बातों से भद्रिक लोग अपना अहित न कर डालें इसलिये मुझे लाचार होकर लेखनी हाथ में लेनी पड़ी है। 'ज्ञानसुन्दर'
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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