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________________ (३८) काऐं स्थापन कराये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि जहाँ दिवाला होता है वहाँ इस प्रकार कल्पित आडम्बर की जरूरत रहा ही करती है । कालान्तर में इधर तो जैन साधुओं का मरुधरादि प्रान्तों में विहार कम हुआ उधर खरतरों के यतियों ने जनता को धनपुत्रादिक का प्रलोभन देकर दादाजी की मूंटी २ तारीफें करके बहका दिया एवं उन बिचारे भद्रिक लोगों को धोखा देकर उनके द्रव्य से दादावाड़ी वगैरह बना ली और वे लोग अपनायत के कारण जहाँ तक उन उत्सूत्रव दियों की कुटिलता को नहीं जानते थे वहाँ तक मानते भी थे.इससे क्या हुआ ? कर्म सिद्धान्त से अज्ञात लोग धन पुत्रादि के पिपासु दादजी तो स्या पर भैरव भवानी और पीर पैगम्बर के यहाँ भी जाकर शिर झुका देते हैं तो इसमें दादाजी की क्या विशेषता है। परन्तु जब वे लोग ठीक तरह से समझने लगे कि इन उत्सूत्रवादियों के मुंह देखने से ही पाप लगता है एवं वे खुद उत्सूत्र. की प्ररूपना करके संसार में डूबे हैं तो उनकी उपासना करने में सिवाय नुकसान के क्या हो सकता है ? अतः आज वे दादावाड़िये भूत एवं पिशाच के स्थानों की वृद्धि कर रही हैं। इतना हो क्यों पर जो लोग खरतर अनुयायी कहलाते हैं और धनपुत्रार्थ कई दादाजी के भक्त बन उनकी उपासना करते थे, उनको उल्टा फल मिलने से उनकी भी श्रद्धा हट गई है। शेष रहे हुये भक्तों की भी यही दशा होगी। अब जैन सिद्धान्त की ओर भी जरा देखिये कि जैनसिद्धान्त खास कर्मों को मानने वाला है। पूर्वसंचित शुभाशुभ कर्म को अवश्य भुक्तना पड़ता है न इसको देव छुड़ा सकता है
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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