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________________ (24) प्रसार और धम्म विजय। विभिन्न पंथों के लोगों में परस्पर सहिष्णुता की भावना अशोक द्वारा प्रतिपादित धर्म महाभारत के ( राजधर्म) से बहुत-कुछ मिलताजुलता है उसका धम्म सांप्रदायिक रूढ़िवादिता से बहुत दूर था। अशोक ने अपनी प्रजा के विशाल समूह को ध्यान में रखकर ही एक ऐसे व्यावहारिक धम्म का प्रतिपादन किया, जिसका पालन आसानी से सब कर सके। उसका का धम्म सदाचार का धर्म था यह एक ऐसा नैतिक नियम था, जिसका संप्रदाय विशेष से कोई संबंध नहीं था और जो मानवता के कल्याण के लिए घोषित किया गया था। सम्राट अशोक का विचार एवं उसकी व्याख्या वास्तविक जीवन के अनुभवों से की जा सकती हैं। धर्मनिरपेक्षतावाद जीवन के कल्याण और मनुष्य के आचरण तथा व्यवहार के लिए निरपेक्षता को सिद्धांत अपनाता है यह एक विज्ञान की तरह है जो प्रतिफल में नई चीज देता है धर्मनिरपेक्षता भी मानव कल्याण के संदर्भ में न धर्म के पक्ष और न विपक्ष में कार्य करता है सम्राट अशोक द्वारा राज्य, राष्ट्र और मानव हित के लिए धर्मनिरपेक्षता में पाये जाने वाले गुण जैसे सहिष्णुता, मनुष्य की लौकिक सुख-सुविधा की प्राप्ति पर बल दिया रूढ़िवादी धर्मों की यह एक तरह से धर्मों के प्रति उपेक्षा - जो सहिष्णुता का रूप ले लेती है ऐसा कहा जा सकता हैं जब हम इसे आधुनिक भारत से जोडते हैं तो हमारे राजनेताओं विचारको, धर्मगुरूओं की बात का आकलन करते हुए हम यह जानते है भारतीय धर्मों के प्रति सहिष्णुता और सदभाव यही धर्मनिरपेक्षता है गांधीजी का 'सर्वधर्म समभाव' जिसे भारतीय धर्म निरपेक्षतावाद का रूप कह सकते हैं आध्यात्म एवं पारलौकिक जगत में भारत हमेशा से 'वसुदैव कुटुम्बकम' की भावना से ओत-प्रोत नैसर्गिक कल्याण और मातृभाव पर कार्य करती रही हैं हम कह सकते है भारत में धर्मनिरपेक्ष की व्याख्या धर्म के प्रति 'तटस्थता' के भाव के रूप में नही दी जाती बल्कि 'धर्म समन्वय' के रूप में दी जाती है भारत में धर्मनिरपेक्षता के शासन का सिद्धांत ही नही बल्कि यह राष्ट्रीय एकता का मूलमंत्र भी हैं यही विचार सम्राट अशोक को विश्व में भारतीय संस्कृति के रूप में सर्वमान्य ग्रहण किया। *****
SR No.032621
Book TitleIndian Society for Buddhist Studies
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachya Vidyapeeth
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2019
Total Pages110
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size7 MB
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