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________________ पदवी प्रसंग, सुरत, वि.सं. २०५५ १४-३-२०००, मंगलवार फाल्गुन शुक्ला -६ : चंदुर * आगम-पठन रूप स्वाध्याय से सर्वोत्कृष्ट कर्म-निर्जरा होती है, आठों कर्मो का क्षय होता है । स्वाध्याय रूपी अभ्यन्तर तप से पूर्व प्रायश्चित, विनय और वैयावच्च है । स्वाध्याय सीखने के लिए विनय आदि आवश्यक विनय के बिना व्यावहारिक विद्या भी नहीं आ सकती । अर्जुन के समान विद्या अन्य कोई भी सीख नहीं सका क्योंकि अर्जुन के समान अन्य कोई विनयी नहीं था । सीख तो सब रहे थे, परन्तु विनय की मात्रा के कारण विद्या की मात्रा में अन्तर पड गया । जगत् की समस्त विद्याओं की अपेक्षा मोक्ष-विद्या सर्वोत्कृष्ट है । व्यावहारिक जगत में भी विनय की इतनी आवश्यकता पड़ती है तो फिर मोक्ष-विद्या में कितनी आवश्यकता पड़ती होगी ? 'चंदाविज्झय् पयन्ना' सम्पूर्ण ग्रन्थ विनय-प्रधान है। यदि आप उसका स्वाध्याय करेंगे तो निश्चित रूप से विनय जीवन में उतरेगा । गुरु का विनय करने से गुरु के समस्त गुणों का हमारे भीतर (४२ moms कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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