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________________ तो श्रावकत्व स्वीकार कर लें उसमें ही उनका कल्याण है । * विद्या भी भाग्यशाली को प्राप्त कर के ही पुष्ट होती है । विनयी ही भाग्यशाली गिना जाता है । यहां तो विनय ही परम धन है । यह जिस के पास हो वह भाग्यशाली है । आठों कर्मों का विनयन करे उसे 'विनय' कहते है । हमारे झुकने पर अक्कड़ता से बंधे हुए कर्म क्षय होते रहते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, प्रत्येक में विनय जुड़ी हुई है । विनय के बिना एक भी सफळ हो नहीं सकता । जिन शासन विनयमय है । - विनय आन्तरिक युद्ध का तीक्ष्ण शस्त्र है । इस के बिना कर्म - शत्रुओं के विरुद्ध आप कैसे लड़ सकेंगे नहीं, विनय सीखें । अत: प्रथम ज्ञान गुरु के सामने जाना, आसन बिछाना, दांडा लेना आदि विनय कहलाते हैं । चाहे गुरु इनकी अपेक्षा न रखें, परन्तु हमारा कर्तव्य क्या है ? कुलीन बाला जिस प्रकार असाधारण पति को पाकर बलवान बनती है, उस प्रकार विनीत को पाकर विद्या बलवान बनती है । सिक्खाहि ताव विणयं, किं ते विज्जाइ दुव्विणीअस्स । दुस्सिक्खिओ हु विणओ, सुलहा विज्जा विणीअस्स । चंदाविज्झय पयन्ना - ११ तू पहले विनय सीख । तू दुर्विनीत एवं उद्धत है तो विद्या से तुझे कार्य क्या है ? विनय सीखना ही कठिन है । यदि तू विनीत बन जायेगा तो विद्या स्वतः आने वाली ही है । विद्या सीखनी कठिन नहीं है, विनय सीखना कठिन है यह इस ग्रन्थ का सार है । भक्ति विनय का ही पर्याय है । आप करीबन २५० के लगभग साध्वीजी साथ हैं तो कभी पक्खी जैसे दिन सब साथ-साथ प्रतिक्रमण करो तो कितना सुन्दर प्रतीत होगा ? विनय के समान कोई वशीकरण मंत्र नहीं है । इससे आप कहे कलापूर्णसूरि २ कळळ ३७
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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