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________________ जाने । फिर तो नवकार पर इतना सूक्ष्म चिन्तन करते कि 'नमो' में सब समाविष्ट कर देते । कई बार अनुभव के पास शास्त्र पीछे रह जाते हैं । शास्त्रों में उल्लेख न हो वैसी बातें अनुभव में आती हैं । शास्त्र तो केवल मार्ग-दर्शक हैं, बोर्ड है; अनुभव तो हमें ही करना पड़ता है । चिदानंदजी, आनंदघनजी के अनुभव पढ़ें । कौन से शास्त्र में आया ? यह नहीं पूछ सकोगे । व्यवहार में भी 'गुलाब जामुन' और 'अमृती' की मिठास में अन्तर क्या ? क्या आप शब्दों से कह सकोगे ? गूंगा व्यक्ति तो मिठाई का वर्णन नहीं कर सकता लेकिन बोलता हुआ आदमी भी दोनों मिठाइयों की मिठास में अन्तर बता सकेगा ? वह इतना ही कहेगा कि आप चखें और अनुभव करें । ज्ञानियों की भी यही दशा होती है । शास्त्रों का अध्ययन भी आखिर अनुभव हेतु करना है। अनुभव कहें कि समाधि कहें, एक ही बात है । समाधि भी आखिरकार तो साधन है । उसके द्वारा आखिरकार आत्मा को सिद्ध करना है। शास्त्रों में भी अटक नहीं जाना है, अनुभव तक पहुंचना है। यह मैं कहना चाहता हूं, परन्तु विशेष रुचि नहीं देखता, उसकी अन्तर में वेदना है । यहां इतने महात्मा एकत्रित हुए हैं तो अपने-अपने अनुभव बतायें, कुछ भी छिपा कर न रखें । पू. मुनिश्री धुरंधरविजयजी - आप कहते ही हैं न ? आखिर मार्ग तो एक ही है । जो जान गया है वह बोलता है थोड़ा ? "जिनही पाया, तिनही छिपाया ।" पूज्यश्री - सभी बातें सापेक्ष होती हैं । हकीकत यह है कि अनुभव छिपा नहीं रहता । वह तो मेरु है । कैसे ढ़क सकोगे ? वह तो चन्द्रहास तलवार है । उसे आप किस म्यान में रखोगे ? "प्रभु गुण अनुभव चन्द्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में..." __ - उपा. यशोविजयजी (कहे कलापूर्णसूरि - २ 500000000008 ५२५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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