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________________ ११ दीक्षा प्रसंग, भुज, वि.सं. २०२८, माघ शु. १४ १०-७-२०००, सोमवार आषाढ़ शुक्ला-९ : पालीताणा * भगवान कृत कृत्य हैं, फिर तीर्थ-स्थापना क्यों करें ? तीर्थंकर नामकर्म का क्षय करने के लिए ही तीर्थ की स्थापना करते हैं, इतना सोचकर बैठ जाना पर्याप्त नहीं है । इस विचार से आपके अन्तर में भगवान के प्रति भक्ति भाव नहीं जगता । भगवान ने तो अपने कर्मों के क्षय के लिए तीर्थ की स्थापना की । इसमें करुणा कहां आई? क्या ऐसा विचार भक्ति जगने देगा ? भगवान का अपना दृष्टिकोण हम अपना लें तो भक्तिमार्ग में कदापि प्रवेश नहीं कर सकते । भगवान ने परम करुणा करके अपने जैसों का उद्धार करने के लिए तीर्थ की स्थापना की है। यह विचार ही हृदय को कैसा गद्गद् कर देता है ? ऐसे विचार के बिना भक्ति नहीं जगेगी, समर्पण-भाव नहीं जगेगा । * भगवान की भक्ति के बिना कर्म नहीं पिघलते । कर्म पिघले बिना भीतर रहे परमात्मा नहीं प्रकट होंगे । हम पलपल कर्म बांधते ही रहते हैं । अब भी कर्मों का (४९० 666000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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