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________________ द्रव्य दीक्षा में भी वह शक्ति है, जो भाव दीक्षा का कारण बन सकती है । गत वर्ष 'पंचवस्तुक' में बात आई थी, जिसमें हरिभद्रसूरिजी ने लिखा है कि दीक्षा के द्रव्य विधि-विधान में, चैत्यवन्दन आदि मैं भी वह शक्ति है जो द्रव्य दीक्षा को भाव दीक्षा में बदल दे । * चैत्यवन्दन जैसी वैसी क्रिया नहीं है । किस का चैत्यवन्दन करना है ? ऐसे महा करुणा-सिन्धु, त्रिलोक-पूजित भगवान का चैत्यवन्दन करने का सुअवसर मेरे जैसे पामर को मिला । ऐसे गद्गद् भाव चैत्यवन्दन से पूर्व आने चाहिये, ताकि चैत्यवन्दन फलदायी सिद्ध हो । प्रभु के प्रति प्रेम होना चाहिये, ऐसा प्रेम जो अन्य किसी पदार्थ पर न हो, केवल प्रभु पर ही हो । इसे ही प्रीतियोग कहा जाता है। यह प्रीतियोग ही भक्तियोग का मूलाधार प्रश्न - प्रेम है या नहीं, यह कैसे ज्ञात हो ? उत्तर - चैत्यवन्दन आदि चलते हों, तब क्या अन्य कुछ याद आता है ? खाने का, पीने का या अन्य कुछ करने का याद आता हो तो समझें कि अभी तक प्रीतियोग जमा नहीं है। प्रीतियोग सुदृढ होने के पश्चात् ही भक्ति योग का विकास होता है। प्रीतियोग में प्रेम की प्रधानता है। भक्तियोग में पूज्यता की प्रधानता है। यह मार्ग पूर्व के महापुरुषों के द्वारा लिया गया है । उन्हों ने इस मार्ग पर चलकर अनन्त सुख प्राप्त किया है । इस मार्ग पर मुझे चलने का अवसर मिला, यही मेरा सौभाग्य है । ऐसा सोचते-सोचते प्रति पल प्रभु-प्रेम बढ़ता रहना चाहिये । प्रभु-प्रेम इस प्रकार अरूपी है, परन्तु प्रभु-प्रेमी के बाह्य लक्षणों से दूसरों को भी इसका पता लगे । प्रभु-प्रेमी गुप्त ही रहे । लोगों में दिखावा करने का प्रयत्न न करे । लोगों में दिखावा करने से विघ्न आते हैं । लोक-सम्पर्क बढ़ता जाये । लोक सम्पर्क भक्ति में आने वाला बड़ा विघ्न है। सब्जी बेचनेवाले काछिये की तरह जौहरी कदापि अपने रत्नों को खुला नहीं रख देता । आजकल जो प्रदर्शन करने जाते हैं, वे लुट (कहे कलापूर्णसूरि - २Wwwwwwsanaasawwwmom ४८१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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