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________________ अन्त में सर्व नयाष्टक है, जिसमें समस्त नयों का आदर करने का विधान है । समस्त नयों का समादर अर्थात् समस्त विचारों का उन उन स्थानों पर समादर । * 'इक्को मे सासओ अप्पा ।' मेरा एक आत्मा शाश्वत है । वह ज्ञान - दरशन आदि से युक्त है । इसके अतिरिक्त जगत् में अन्य कोई पदार्थ नहीं है जो मेरा हो । दिखाई देने वाले समस्त पदार्थ 'पर' हैं । 'मैं' नहीं हूं । 'मैं' (आत्मा) हूं जो दिखाई नहीं देता । इतनी छोटी बात भूल जाने से ही जीव को चार गति में भटकना पड़ता है । देह में अपनत्व की बुद्धि हमें देह के साथ जोड़ती है, पुनः पुनः हमें देह प्रदान करती है । ज्यों ज्यों देहाध्यास टूटता जाता है, त्यों त्यों मानें कि देह से मुक्त अवस्था (मोक्ष) निकट आ रही है । * 'ज्ञानसार' के प्रथम ही श्लोक में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आप पूर्ण हैं, पूर्णता आप की अपनी है । भगवान भी आपको पूर्ण रूप में देखते हैं । करुणा यह है कि आपको ही अपनी पूर्णता पर विश्वास नहीं है । प्रत्येक अष्टक में एक एक विषय लिया गया है। हम अध्ययन कर लेते हैं, परन्तु सब ऊपर-ऊपर से होता है, स्थिरतापूर्वक हम गहराई में नहीं उतरते । भय, द्वेष, एवं खेद ये तीन दोष हों तब तक चित्त चंचल रहता है । द्वेष से घृणा रहती है और खेद से थकान आती है । चंचलता, घृणा एवं थकानपूर्वक किया गया अध्ययन आपको कितना फल देगा ? यह तो आप ही सोच कर देखें । * अपूर्ण दृष्टि अपूर्ण देखती है । पूर्ण दृष्टि पूर्ण देखती है । काले चश्मे से काला दिखाई देता है । पीले चश्मे से पीला दिखाई देता है । अनेक भक्त कहते हैं ४६२ कळकळ — मुझे सर्वत्र भगवान दिखाई देते हैं, १८८७ कहे कलापूर्णसूरि २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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