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मुत्तमं दितु ।" "हे भगवान् ! मुझे आरोग्य, बोधिलाभ एवं समाधि प्रदान करें ।"
सर्वोत्कृष्ट ('वर' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट) समाधि की याचना यहां की गई है । इसका अर्थ यह हुआ कि यह सूत्र समाधि-प्रदाता है । इसीलिए पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी म. इसे समाधि सूत्र कहते थे ।
समाधि प्राप्त करनी हो तो बोधि चाहिये । बोधि प्राप्त करनी हो तो आरोग्य (भाव आरोग्य) चाहिये ।
उत्तराध्ययन में प्रश्न है कि प्रभु के कीर्तन आदि से क्या मिलता है ? उत्तर है - मिथ्यात्व का क्षय होता है, बोधि का लाभ होता है और समाधि प्राप्त होती है ।
* नवकार यदि चौदह पूर्व का सार है, तो उसमें निहित पंचपरमेष्ठी भी चौदह पूर्व के सार हैं ।
नवकार अर्थात् क्या? केवल अक्षर? नहीं, पांचो परमेष्ठी जीते-जागते नवकार ही हैं ।
अन्य चारों परमेष्ठियों का मूल अरिहंत है। इसीलिए अरिहंत चौदह पूर्व का ही नहीं, समग्र ब्रह्माण्ड का सार है ।
मिथ्यात्व की मन्दता के बिना ये बातें समझ में नहीं आती । चाहे जितना गुणवान व्यक्ति हो, परन्तु हम उसे प्रायः गुणवान के रूप में स्वीकार नहीं करते, क्योंकि भीतर अहंकार बैठा है, मिथ्यात्व बैठा है।
ऐसी वृत्ति अपनी ही नहीं, पूर्व अवस्था में गणधरों की भी थी ।
वे भगवान के पास समझने के लिए नहीं, झुकने के लिए नहीं, परन्तु भगवान को परास्त करने के लिए आये थे ।
भगवान के दर्शन से मिथ्यात्व पिघल गया, भगवान में भगवत्ता दिखाई दी और फिर तो ऐसी शक्ति प्रकट हुई कि अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांगी की रचना की ।
प्रभु की कृपा हुई और गणधरों को आरोग्य, बोधिलाभ, समाधि इन सबकी प्राप्ति हुई ।
* सिंह जब तक अपनें सिंहत्व को ही नहीं पहचाने तब (कहे कलापूर्णसूरि - २ 6 6 6 mmmmmmmmmm 60 ४२९)