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________________ mammeedom आचार्य पदवी प्रसंग, भद्रेश्वर - कच्छ, वि.सं. २०२९, माग. सु. ३ २६-६-२०००, सोमवार आषा. कृष्णा-९ : पालीताणा * जीव के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त आन्द भरा होने पर भी वह यह जानता नहीं, श्रद्धा करता नहीं । इसीलिए वह उस आनन्द को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता नहीं है । पहले श्रद्धा होती है फिर प्रयत्न होता है । आत्मा के आनन्द की श्रद्धा ही सम्यग् दर्शन है । आत्मा के आनन्द की जानकारी ही सम्यग् ज्ञान है । आत्मा के आनन्द में रमणता ही सम्यक् चारित्र है । धर्म के द्वारा यही प्राप्त करना है - आतमा का आनन्द । यह तब ही सम्भव होता है यदि जीव पर चिपके कर्म हट जायें । आत्मानन्द की इच्छा के बिना किया गया धर्म सच्चा धर्म नहीं बन सकता । ऐसे धर्म का तो अभव्य भी सेवन करता है। वह नवे ग्रैवेयक तक भी जा सकता है, परन्तु पुनः संसार में गिर पड़ता है, क्योंकि भौतिक सुख की ही श्रद्धा थी। आत्मा के आनन्द की न श्रद्धा थी, न उसके लिए प्रयत्न थे । भगवान का यही कार्य है - आत्मानन्द की रुचि उत्पन्न करना । एक बार आपमें उसके लिए रुचि जगी तो उसके लिए आप पुरुषार्थ (४१६ 0ommonomonomonomom कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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