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________________ * समकित निर्मल होता जाये तो अपने कषाय मन्द होते जाते हैं, कषायों के आवेशों को जीतने की शक्ति बढ़ती जाती है । इस के लिए शक्ति धैर्य से विकसित होती है। कषाय हमें अधीर करते हैं, आवेशमय बनाते हैं, भयानक चेहरे वाला बनाते हैं । हमारे फलोदी में लाभूजी वैद्य थे। क्रोध में आते तब उनकें होंठ ऐसे फड़कते कि मानो हाथी के फड़कते कान देख लो । ऐसे आवेशों को घटाने का कार्य धैर्य करता है, विवेकशक्ति करती है । समकित से विवेक एवं धैर्य बढ़ते हैं । कुमारपाल ने अर्णोराज के साथ युद्ध किया था तब सम्पूर्ण सेना फूट गई थी, फिर भी वफादार हाथी एवं वफादार महावत के सहारे विजय प्राप्त की थी । जब सब जाने लगे तब धैर्य एवं विवेक स्थिर रखना । जीत (विजय) आपकी होगी । * नौ तत्त्वों में प्रथम तत्त्व जीव है । अन्तिम तत्त्व मोक्ष (शिव) है । जीव को शिव बनाना ही साधना का सार है। इसके लिए ही पाप-आश्रव आदि का त्याग और पुन्यसंवर आदि का स्वीकार करना है । नौ तत्त्वों के अध्ययन से यही समझना है। इस जीवन तथा गत अनेक जीवनों में देह के साथ इतना अभेद हो गया है कि जीव (आत्मा) कदापि याद आता ही नहीं है, शिव तो याद आये ही कहां से ? "मैं अर्थात् देह ।" "मेरा अर्थात् देह सम्बन्धी अन्य सब ।" इस मंत्र से मोह राजा ने सम्पूर्ण विश्व को अंधा बना दिया है । अब मोह राजा को जीतना हो तो प्रतिमंत्र का आश्रय लेना पड़ेगा । "मैं अर्थात् देह नहीं, परन्तु आत्मा । मेरा अर्थात् परिवार आदि नहीं, परन्तु ज्ञान आदि ।" मोह को जीतने का यह मंत्र है । कैसा है अपना स्वरूप ? (४०२Wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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