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________________ NA 00.00 000 माराम Anil Jautact श्रमण संमेलन, अमदावाद, वि.सं. २०४४ २२-६-२०००, गुरुवार आषा. कृष्णा-५ : पालीताणा धन्ना निच्चमरागा जिणवयणरया नियत्तियकसाया । निस्संग निम्ममत्ता विहरंति जहिच्छिया साहू ॥ १४७ ॥ * प्रभु के कथनानुसार श्रद्धापूर्वक ज्ञान प्राप्त करके साधना करें तो अपने भीतर छिपे प्रभु प्रकट होंगे ही। * प्रभु के हम पर अनन्त उपकार हैं । भक्त को तो चारों ओर प्रभु के उपकारों की वृष्टि होती प्रतीत होती है। जहां जहां गुण हैं, पुन्य हैं, सुख हैं, शुभ हैं, परोपकार हैं; वहां वहां प्रभु का ही प्रभाव है। चारो ओर उनकी वृष्टि हो रही है। उसे देखने के लिए आपके पास आंखे होनी चाहिये, भक्त की आंखे चाहिये । भक्त की आंखो से जगत् को देखोगे तो प्रभु के उपकारों की वृष्टि होती प्रतीत होगी । फिर तो यशोविजयजी म.सा. की तरह आप भी गा उठेंगे - "प्रभु उपकार गुणे भर्या, मन अवगुण एक न माय रे..." प्रभु के उपकारों से, गुणों से मन ऐसा भर जायेगा कि एक अवगुण भी नहीं दिखाई देगा । ___भौतिक देह का जन्म देनेवाली माता का भी उपकार मानना कहे moonmooooooooooooom ३९१
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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