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________________ * 'चंदाविज्झय पयन्ना' का नाम तो पक्खी सूत्र में अनेक बार सुना था, परन्तु सांतलपुर के भंडार में उसका नाम पढ़कर मैं उसे पढ़ने के लिए लालायित हुआ । मैंने उसे पढ़ा । थोड़े ही श्लोकों में सात विभागो में विभाजित यह ग्रन्थ देख कर आनन्द आया । नागेश्वर के संघ के समय (आचार्य प्रद्योतनसूरिजी भी तब साथ थे। उनकी आचार्य पदवी भी उस संघ में ही हुई थी वि.सं. २०३८) उन पर वाचना रखी गई थी । उसके बाद अभी फिर से वाचना रखी गइ है । इस समय भी यह ग्रन्थ अद्भुत एवं अपूर्व प्रतीत होता है । इसके सात अधिकारों में इस समय सातवां (मरण-गुण) अधिकार चल रहा है । इस ग्रन्थ पर वाचना पूर्ण होने पर 'ललित विस्तरा' पर वाचना रखने की इच्छा है । * इस ग्रन्थ में विशेष करके प्रारम्भ में विनय पर अत्यन्त ही भार दिया गया है । भगवान एवं गुरु का विनय नहीं हो तो समकित प्रकट नहीं होता । यदि प्रकट हो चुका हो तो स्थिर नहीं रहता । ___ भगवान स्वयं कहते हैं कि मैं और गुरु भिन्न नहीं है । गुरु का अपमान करने वाला व्यक्ति मेरा अपमान करता है। गुरु का सम्मान करने वाला व्यक्ति मेरा सम्मान करता है। शास्त्र में तो यहां तक उल्लेख है कि 'गुरु विणओ मोक्खो', गुरु का विनय ही मोक्ष है। गुरु का विनय करना आने पर मोक्ष-मार्ग की यात्रा प्रारम्भ हुई समझें । ज्ञान पुस्तक के अधीन नहीं है, गुरु के अधीन है । पुस्तक से ज्ञान प्राप्त करके उद्धत बना शिष्य जब कह देता है - 'आपको कुछ नहीं आता । मुझे अधिक आता हैं, तब समझें कि अब इसके पतन का प्रारम्भ हो गया है । महाज्ञानी उपा. यशोविजयजी म.सा. जैसे भी अपनी अपेक्षा से अल्पज्ञानी गुरुको भी सदा आगे रखकर कहते है - 'श्री नयविजय विबुध पय-सेवक ।' * आज हम जोग के लिए उतावल करते हैं, परन्तु ग्रन्थ की, ज्ञान की या विनय की हमें कुछ भी पड़ी नहीं है। विनयपूर्वक ग्रहण किया गया ज्ञान ही फलदायी बनता है । (कहे कलापूर्णसूरि - २ Momsonam aswwmoms ३५७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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