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________________ - क्रिया लीनता १४-६-२०००, बुधवार जेठ शुक्ला-१३ : पालीताणा * हमने संसार में अनेक दुःख भोगे, क्योंकि जिन-वचन नहीं मिले । अब जिन-वचन तो मिले हैं, परन्तु क्या वह फलित हुआ है ? वह तब ही फलेगा जब जिन-वचन निज-वचन बन जाये, जिन-वचनानुसार जीवन बन जाये । यद्यपि इस विषम काल में ऐसा जीवन जीने वाले अत्यन्त ही अल्प हैं । 'योगसार' कार की भाषा में कहें 'द्वित्राः' दो-तीन ही । जिन का संसार लम्बा है, विषयासक्ति गाढ है, कषाय प्रबल हैं । वैसे जीवों को तो ये जिन-वचन प्रिय नहीं लगे, यह स्वाभाविक ही है। कषाय आदि मन्द हों तो ही जिन-वचन प्रिय लगते है। कषाय मन्द पड़ गये हैं, यह कैसे ज्ञात होगा ? सामने वाले व्यक्ति के उग्र कषायों के आक्रमण के समय भी हम कषायों को खड़े न होने दें तो जानें कि मेरे कषाय अशक्त हो गये हैं। (कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000000000000 ३४९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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