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________________ पदवी प्रसंग, मद्रास, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३ १२-६-२०००, सोमवार जेठ शुक्ला-११ : पालीताणा जेण जिणा अट्ट मया, गुत्तो वि हु नवहिं बंभगुत्तीहि । आउतो दसकज्जे, सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३८ ॥ * साक्षात् तीर्थंकर चाहे नहीं मिले, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हमारी पुन्याई सर्वथा अल्प है; क्योंकि करोड़ो जीवों को दुर्लभ भगवान की वाणी एवं भगवान की प्रतिमा हमें प्राप्त * सम्यक्त्व से पूर्व के तीर्थंकरो के भव भी नहीं गिने जाते तो हम जैसों की बात ही क्या है ? जीव अनादिकाल से है, तो तीर्थंकरो के जीवन-चरित्र का प्रारम्भ कब से करें ? सम्यक्त्व प्राप्त हो तब से प्रारम्भ करें । धन सार्थवाह से आदिनाथ भगवान का एवं नयसार से महावीर स्वामी का जीवन प्रारम्भ होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सम्यक्त्व पूर्व का जीवन, जीवन ही नहीं कहलाता । सम्यक्त्व के पश्चात् का जीवन ही वास्तविक जीवन है। उससे पूर्व केवल समय व्यतीत होता है, इतना ही । * हम तड़प रहे हैं उससे अनेक गुने अधिक हमें तारने (कहे कलापूर्णसूरि - २00amasomooooooooooooo ३३९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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