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________________ कायोत्सर्ग मुद्रा २९-५-२०००, सोमवार ज्ये. कृष्णा-११ : पालीताणा * धर्म-श्रवण, धर्म-श्रद्धा, धर्माचरण - यह सब मानवभव में ही प्राप्त हो सकता है । इसी कारण से आर्य भूमि के मानव-भव की इतनी प्रशंसा की गई है। मानव-भव धर्म श्रवण आदि के द्वारा ही सफल हो सकता है । उसके बदले अन्य कुछ किया तो वह मानव भव का दुरुपयोग कहलायेगा । स्वर्ण की थाली में मदिरा (शराब) पीना स्वर्ण की थाली का अपमान है। इन्द्र भी ऐसे मानव-भव की चाहना करता है । वह भव हमें प्राप्त हुआ है, यह हमारे पुन्य की पराकाष्ठा है । इसकी दुर्लभता-समझ में न आये यह पाप की पराकाष्ठा है। * आज भगवती में ऐसा पाठ मिला कि जिससे आनन्दआनन्द छा गया । _ 'असुच्चा' । अन्तिम भव में धर्म सुनने को नहीं मिले तो भी केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है । टीकाकार ने लिखा है - 'सुने बिना भी जिन वचनों के प्रति उसे सम्मान होता है। यद्यपि पूर्व भव में तो सुना हुआ हो, केवल इस भव की बात है। इस भव की अपेक्षा से 'असुच्चा' कहा । (सुने बिना धर्म-प्राप्ति) (३२०wwwsanamasoma कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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