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________________ एवं धर्म भी माता के स्थान पर हैं । 'जीयात्पुण्यांगजननी पालनी शोधनी च मे ।' हम कितने ही गन्दे, मैले-कुचैले हों, कर्मों से लिप्त हों, परन्तु भगवान रूपी माता कदापि स्नेह, वात्सल्य कम नहीं करती। छोटे बालक को जिस प्रकार माता का प्रेम समझ में नहीं आता, उस प्रकार बाल्यकाल (अचरमावर्त्त काल) में हमें प्रभु का प्रेम समझ में नहीं आता । प्रभु का प्रेम एवं उपकार समझ में आ जाये तो समझें कि चरमावर्त्तकाल में प्रवेश हो गया है। 'दुःखितेसु दयात्यन्तमद्वेषो गुणवत्सु च ।' ये चरमावर्तस्थ के लक्षण हैं । कतिपय साधु-आचार सम्बन्धी बातें... * श्रावकों को हम भक्ष्य-अभक्ष्य समझाते हैं तो हमें भी भक्ष्य-अभक्ष्य समझना आवश्यक है । * आजकल जो साबूदाने बनते हैं वे पूर्णतः अभक्ष्य हैं । * बाजार का मेंदा (मछलियों के पाउडर से मिश्रित हो सकता है), बिस्किट, चोकलेट, पीपरमिण्ट, नानखटाई आदि नहीं ले सकते । * पू. प्रेमसूरिजी को जीवनभर फलों का त्याग था । फल तो बीमार खाते हैं । हम तो जान-बूझकर बीमार पड़े वैसे हैं। आज भी हम साधु १० तिथियों पर लीलोतरी नहीं लाते । आत्मारामजी महाराज के कोई साधु तिथि के दिन लीलोतरी लाये होंगे तो राधनपुर के श्रावक ने उन्हें एकान्त में सूचित किया, "गुरुदेव ! यहां श्रावक भी दस तिथियों पर लीलोतरी नहीं खाते । यदि साधु वहोरेंगे तो श्रावकों का क्या होगा ? * पूज्य कनकसूरिजी के समय में पालीताना में भाता खाता की गोचरी भी नहीं ली जाती थी । कोई वहोरता हो तो उसकी टीका भी नहीं करनी चाहिये, किसी की निन्दा करना नहीं तथा निन्दा सुनना नहीं । * वीरमगाम में पूज्य प्रेमसूरिजी आदि ६० साधु आये थे । हम विहार में आगे गये थे । उस समय मैंने प्रथम पोरसी का (१४0000ooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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