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________________ जीव में हैं । एक ज्ञातृत्व शक्ति पर आवरण हैं । वह यदि अनावृत बने तो शेष समस्त शक्तियें हमारे विकास में सहायक बनती हैं। जीव के अतिरिक्त अन्य किसी में यह शक्ति नहीं है। अन्य पदार्थ तो स्वयं को भी नहीं जानते, तो दूसरे को किस तरह जानेंगे ? या वे दूसरे का हित कैसे करेंगे ? * द्रव्य की अपेक्षा से जीवास्तिकाय अनन्त जीवों का पिण्ड है । क्षेत्र की अपेक्षा से लोकाकाश प्रमाण है, लोकाकाश से बाहर नहीं है। एक आत्मा को रहने के लिए असंख्य आकाश प्रदेश चाहिये, क्योंकि आत्मा के प्रदेश असंख्य है, परन्तु साथ ही साथ यह भी याद रखें कि एक आकाश प्रदेश में अनन्त आत्मा विद्यमान हैं । काल की अपेक्षा से जीवास्तिकाय त्रिकालवर्ती है । हम जीवास्तिकाय में हैं न ? हम पहले थे, अब हैं और भविष्य में भी रहेंगे । फिर मृत्यु का भय कैसे ? पर्याय बदलते हैं, परन्तु द्रव्य नहीं बदलते । दस वर्ष पूर्व मुझे किसी ने देखा हो और आज पुनः देखे तो कहेगा - कद छोटा हो गया, कमर झुक गई । ये बदलते पर्याय हैं, परन्तु द्रव्य कदापि नहीं बदलते ।। * पुद्गल के साथ तो हमने एकरूपता की है और प्रभु के साथ अलगाव रखा है । ज्ञानी कहते है - पुद्गल भिन्न हैं, प्रभु के साथ एकता है । इस तत्त्व को समझो । * ध्वजा आदि के हिलने से नहीं दिखाई देने वाली - वायु को भी हम मानते हैं, उस प्रकार नहीं दिखने वाली आत्मा कार्य से जानी जा सकती है, उपयोग के द्वारा जानी जा सकती है । उपयोग के दो प्रकार हैं - साकार एवं निराकार । सामान्य है वह निराकार (दर्शन) विशेष है वह साकार (ज्ञान) छद्मस्थ पहले दर्शन करता है (देखता है) फिर जानता है। केवली पहले जानता है फिर देखता है । जिसमें उपयोग हो उस जीव में परस्पर उपग्रह करने की शक्ति भी होती ही है । कहे कलापूर्णसूरि - २6660000000000000000000 २८९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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