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________________ मेरा सिर दुःखता है, पेट दुःखता है, पांव दुःखते हैं, मुझे रहने का स्थान बराबर मिला ही नहीं है । मेरे खोखे अभी तक नहीं आये । सारा दिन केवल ये ही विचार आते हैं । आत्मा कब याद आती है ? याद आती है तो केवल प्रभु-भक्ति के समय । शरीर की जितनी चिन्ता करते हैं उतनी चिन्ता आत्मा की करें तो समता-समाधि दूर नहीं रहेगी । “अहो ! अहो ! साधुजी समता के सागर..." आप समता के सरोवर हैं न ? कोई ऐसी आशा से आये तो क्या आशा सन्तुष्ट कर सकेगा ? यह स्थिति कैसे चला सकते हैं ? सिंह बकरे की तरह 'बेंबें' करता रहे यह कैसे सहन होगा ? आत्मा जड़ जैसी बन जाये यह कैसे चला सकते हैं ? आत्मा को याद करके भेद ज्ञान प्राप्त नहीं किया हो तो मृत्यु के समय समाधि नहीं रहेगी - ऐसा 'चंदाविज्झय' ग्रन्थ में उल्लेख है । भेद-ज्ञान हो गया तो समझ लो, 'देवालय के देव देहालय में आ गये ।' भेद-ज्ञान के बिना परिषहों को सहन नहीं कर पायेंगे । भेदज्ञानी देह की मृत्यु से नहीं डरता, शरीर गिरे तो गिरने दो । भय किस बात का ? शरीर दूसरा मिलेगा । नहीं मिलेगा तो मोक्ष मिलेगा । मृत्यु से भय किस बात का ? मृत्यु के समय समाधि रखना अत्यन्त ही कठिन है, राधावेध साधने जैसा कठिन है । 'चन्द्रावेध्यक' का यही अर्थ होता है । जिस व्यक्ति ने पहले शरीर को, मन को कसा हो, वही यह राधावेध साध सकता है । भेदज्ञानी को अन्तिम समय में चाहे जितनी वेदना हो, परन्तु वह व्याकुल नहीं बनता । मृत्यु के लिए कोई समय नहीं है, वह कभी भी आ सकती है । वह आने से पूर्व तार, टेलीफोन या फैक्स करती नहीं है। वह चौबीस घंटों में से कभी भी आ सकती है। अतः चौबीसों घंटे तैयार रहना है । रोग या वृद्धावस्था न भी आये, परन्तु मृत्यु न आये, क्या यह सम्भव है? जो आने वाली ही है उससे क्या भय ? क्या रूदन ? (कहे कलापूर्णसूरि - २06wwwwwcommasooooo २६७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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