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________________ वढवाण, वि.सं. २०४७ ७-५-२०००, रविवार वैशाख शुक्ला - ४ : पालीताणा * अपने नाम का विस्मरण कराने वाला प्रभु का नाम है । अपने रूप को भुलाने वाला प्रभु का रूप है । मुंह में प्रभु का नाम आ जाये, नैनों में प्रभु की प्रतिमा बस जाय तो सभी विडम्बना कम हो जाय । पंच परमेष्ठी को नमन करने के पश्चात् नवपद में किसे नमन करना चाहिये ? दर्शन आदि सब पंच परमेष्ठी में आ गये, फिर भी जिसमें भी सम्यग्दर्शन आदि गुण हैं उन सबको नमस्कार करने हैं । आचार्य भगवान भी जब साध्वीजी वन्दन करती हैं तब 'मत्थएण वंदामि' कहते हैं । क्यों ? वे तो छोटे हैं न ? छोटे हैं तो क्या हो गया ? गुण तो हैं न ? उन्हें नमस्कार करने हैं। बहुमान उन गुणों को लाने का द्वार है । गुणों को प्राप्त करने के लिए जिसमें वे गुण हैं उसे प्रणाम करो । उसकी माला गिनो । बीस स्थानक क्या हैं ? एक-एक गुण के लिए काउस्सग्ग-माला आदि हैं । क्यों ? क्योंकि वह गुण प्राप्त करना है इसलिए । उसमें साधु पद आता है कि नहीं ? कहे कलापूर्णसूरि २ क कळ २५५
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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