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________________ फिर क्या बाकी रहता है ? काया, वचन, मन तो प्रभु को सौंप दिये, परन्तु ज्ञान आदि भाव भी प्रभु को सौंप देना वह पूजा है । परन्तु हमारी लोभी वृत्ति है । 'मेरा मेरे बाप का, तेरे में मेरा आधा भाग' की वृत्ति वाले हम प्रभु को कुछ भी समर्पित नहीं करते । हां, प्रभु के पास प्राप्त करने के लिए भरचक प्रयास करते हैं । प्रभु को कुछ देना नहीं है और सब कुछ प्राप्त कर लेना है । दिये बिना कैसे मिलेगा ? * आपको प्राप्त ज्ञान आदि गुण दूसरे को दो तो ही आपको वे गुण आगामी जन्म में मिलेंगे । जितना आप दूसरों को दोगे उतना आपका निश्चित रूप से सुरक्षित रहेगा । * गुण प्राप्त करने के लिए इतना करो - पन्द्रह - बीस दिनों के लिए क्षमा का प्रयोग करो । चाहे कितने भी हो जाये, क्रोध करना ही नहीं । बीस दिनों तक क्षमा का प्रयोग करो । क्षमा आत्मसात् होने के पश्चात् नम्रता, सरलता, सन्तोष आदि एक-एक गुण लेते जाओ और पूर्ण शक्ति से उन गुणों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करो । बीस दिनों तक प्रयोग करके देखो । * कुछ भी नहीं चाहिये । किसी वस्तु की खप (आवश्यकता) नहीं है । वस्तु चाहे जितनी आकर्षक हो, परन्तु मुझे नहीं चाहिये । इससे आपके सत्त्व में अत्यन्त ही वृद्धि होगी। ये गुण ही अपना वास्तविक धन है। गुण-प्राप्ति का प्रमुख राजमार्ग प्रभु-कृपा है । प्रभु गुणों के भण्डार है । उनकी शरण में जाने से गुण आते ही हैं । * अपना सच्चा (वास्तविक) जन्म-दिन दीक्षा-दिन है, जब हमें अध्यात्म का मार्ग मिला । आज तो भौतिक देह का जन्मदिन है। आज के दिन अभिलाषा, कामना करता हूं कि इस देह के द्वारा मैं अधिकाधिक साधना करूं, साधना करने वाले अन्य व्यक्तियों को सहायता करूं और यथा-सम्भव शासन-सेवा करता रहूं । [२४८ momoooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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