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________________ संसार रूपी अटवी पार करनी हो तो जिन वचन मानने ही पड़ेगे। "इच्छानुसार ही करुंगा" - यह मोह परतंत्रता है । इसका निग्रह हो तो ही गुरु-परतन्त्रता आयेगी । आगमों के अभ्यासी बने हुए भी कई गुरु की निश्रा में नहीं रहे, वैसी अनेक आत्माएं भटक गई हैं । चौदह पूर्वी भी अनन्त संसारी बन गये हैं । गोशाला भी अन्त में कहेगा कि गुरु की आशातना करने के कारण मैं इतना भटका । वि. संवत् २०२७ में आधोई में चौमासा हेतु प्रवेश था, तब पूज्य दर्शनविजयजी म.सा. दोपहर के दो बजे तक नहीं आये । चिन्ता हुई । जांच कराई तो पू. दर्शनविजयजी महाराज धराणा के पादर से दिशा-भ्रम के कारण पुनः लाकड़िया पहुंच गये थे । लाकड़िया से ही हमने विहार किया था । जहां से चले थे, पुनः वहीं पहुंच गये । हमने भी प्रत्येक जन्म में ऐसा ही किया है। जानकार व्यक्ति की सलाह मानी नहीं, स्वच्छन्द मति के अनुसार चलते ही रहे, तो घांची के बैल की तरह वहीं के वहीं रहे । अतः जीवन में गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । गुरु में ज्ञान अल्प हो तो भी उनके प्रति श्रद्धा फलदायी बनती है । पू. उपा. यशोविजयजी महाराज ज्ञानी थे कि उनके गुरु ज्ञानी थे ? फिर भी देखो तो सही । पांच गाथाओं का स्तवन होगा तो भी उसमें अपने गुरु का नाम उन्होंने लिखा है । क्या हमारा भाव ऐसा है ? * इस ग्रन्थ की कितनी प्रशंसा करें? इस ग्रन्थ का संकल्प है - हमें मोक्ष में पहुंचाना । चारित्र मिल गया है तो अब उसे विशुद्ध क्यों न बनाया जाये? * पांच समिति - तीन गुप्ति में सतत उपयोग के बिना इन अष्ट-प्रवचन माताओं का पालन नहीं होता । प्रवचन-माता नहीं होती तो प्रवचनों की उत्पत्ति नहीं होगी । प्रवचन-माता न हों तो चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती । माता के बिना क्या पुत्र की उत्पत्ति सम्भव है ? क्या पुत्र बड़ा हो जायेगा ? इसीलिए इनका नाम अष्ट प्रवचन-माता दिया गया । २२२nnanonmommonomoooooo
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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