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________________ - जयपुर, वि.सं. २०४१ २६-४-२०००, बुधवार वै. कृष्णा-७ : पालीताणा * हमारे लिए ही नहीं, जगत् के सभी जीवों के लिए मानव-भव दुर्लभ है । यह मानव-भव सबको चाहिये । सब उसके अभिलाषी हैं । सीट कम हैं, सदस्य अधिक हैं। तेऊ-वाऊ के अतिरिक्त समस्त दण्डकों में से जीव मनुष्य हो सकता है और मनुष्य सभी दण्डकों में जा सकता है। संसार के बहुमूल्य पदार्थ काम-कुम्भ, चिन्तामणि आदि तराजू के एक पलड़े में रखो और दूसरे पलड़े में मानव-भव रखो, तो मानव-भव का पलड़ा चढ़ जायेगा । असंख्यात देव तरस रहे हैं कि हमें मानव-भव कब मिले ? कब हम साधु बनें ? साधुओं को वे नित्य वन्दन करते हैं, उनका नित्य स्मरण करते हैं । ऐसे साधुत्व का हमारे मन में मूल्य है क्या ? * अरिहन्तो को वन्दन करने से पापों का क्षय होता है, उस प्रकार साधु को वन्दन करने से भी पापों का क्षय होता है । अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य अथवा उपाध्याय, साधु बने बिना बना नहीं जा सकता । (१९४ wwwwwwwwwwwwman कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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