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________________ चिन्तन में मग्नता २४-४-२०००, सोमवार चैत्र कृष्णा-५ : पालीताणा जो तत्त्व भगवान के पास से गणधरों को प्राप्त हुए, वे हमें भी उपयोगी हैं । उसके लिए उन्होंने सूत्रों के रूप में रचना की। प्रत्येक सूत्र-रत्न का डिब्बा, रत्नों की मंजूषा (पेटी) मानी जाती है । अतः द्वादशांगी गणिपिटक कहलाती है । गणिपिटक अर्थात् गणि की पेटी । गणि अर्थात् गणधर ! आचार्य ! रत्न तो ठीक, चिन्तामणि रत्न से भी ये सूत्र अधिक मूल्यवान हैं, जो इस भव को ही नहीं, परलोक को भी सुधार देते है । क्या चिन्तामणि रत्न ऐसा कर सकता है ? * जहां तक नया अध्ययन करने की शक्ति हो, तब तक उसका उपयोग करोगे तो ज्ञान-शक्ति बढ़ेगी । यदि उपयोग नहीं करोगे तो बिना प्रयत्न ही अज्ञान-शक्ति बढ़ती ही जायेगी। क्षमा-शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करोगे तो क्रोध-शक्ति बिना प्रयत्न ही बढ़ती ही रहेगी । आन्तरिक गुणों के लिए प्रामाणिक प्रयत्न करते रहेंगे तो शान्ति, समाधि आदि मूल्यवान वस्तु मिलती रहेंगी । * चारित्र का पालन करना अर्थात् क्षमा आदि दस यति [१८०00000000oooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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