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________________ पद प्रदान प्रसंग, वांकी - कच्छ, वि.सं. २०५६, माघ शु.६ २०-४-२०००, गुरुवार वै. कृष्णा-२ : पालीताणा * रोग, शोक, आधि, उपाधियों को निवारण करने का सामर्थ्य सिद्धचक्र में है । जिनशासन सिद्धचक्रमय है। इसीलिए सिद्धचक्र को वर्ष में दो बार याद करते ही हैं । छोटे-छोटे गांवो में भी आयंबिल की ओली होती हैं। वहां गाई जाने वाली पूजा की ढाल आदि कितनी रहस्यपूर्ण हैं ? उन पर हम चिन्तन कर रहे हैं । * परभव में हमें कैसा बनना है ? उसकी झलक इस भव में हमें मिलती है । कालिया कसाई नरक में जाने वाला था । इसीलिए उसे अन्त समय में विष्टा का लेप, कांटों की शैय्या आदि ही प्रिय लगने लगे । यह नरक की थोड़ी सी झलक थी । अपने आगामी भव की झलक यहां कैसी प्रतीत होती है ? कौन सी संज्ञा अधिक जोर करती है ? कौन सा कषाय अधिक है ? आहार संज्ञा अधिक रहती हो तो तिर्यंच गति की झलक समझें । मैथुन संज्ञा मनुष्य की, भय संज्ञा नरक की और परिग्रह संज्ञा देवगति की झलक बताती है; परन्तु उसके पीछे यदि रौद्र ध्यान जुड़ जाये तो गति बदल जाती है । परिग्रह संज्ञा में आसक्त 'मम्मण' एवं [कहे कलापूर्णसूरि - २00ooooooooooooooooom १५५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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