SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य दूर ही रहते हैं । सदा अप्रमत्त रहते हैं और अपना मन अकलुषित रखते हैं । माया का नाम नहीं होता, जिससे मन निर्मल होता है। * आचार्य गच्छ-नायक हैं, अतः वे निश्चित मुनियों की सारणा, वारणा आदि करते हैं । ऐसा करने का उनका अधिकार पू. कनकसूरिजी 'भान नथी ?' इतना बोलते, यह उनकी सबसे कठोर शिक्षा थी । * जिनेश्वर भगवान रूपी सूर्य और केवली रूपी चन्द्रमा नहीं होते तब आचार्य दीपक बन कर आते हैं और हमारा जीवन उज्जवल करते हैं । इस विषमकाल में सूर्य-चन्द्र नहीं हैं, अतः हमें दीपक से चलाना है । दीपक मिल जाये वह भी अहोभाग्य * ‘एवं मए अभिथुआ ।' 'अभिथुआ' अर्थात् सामने रहे हुए भगवान की स्तुति । भगवान दूर होने पर भी, सात राजलोक दूर होते हुए भी सामने विद्यमान कैसे ? अपने सामने तो दीवार है, छत है, भगवान कहां है ? परन्तु रुको । हम चर्म-चक्षु से चलने वाले नहीं हैं ।' 'साधवः शास्त्रचक्षुषः ।' साधु की आंख शास्त्र है । वह शास्त्र अलमारी में पड़ा रहता है या साथ रहता है ? चर्म-चक्षु तो मोतिया बिन्द, झामर आदि से बंध भी हो जाती है, आदमी अंधा भी हो जाये, परन्तु श्रद्धा की आंख सदा अपने पास ही रहती है, यदि हम उसे संभाल कर रखें । श्रद्धा की आंख या शास्त्र-आंख दोनों एक ही हैं, भिन्न नहीं हैं । आंखें देने वाले भगवान है - 'चक्खुदयाणं' । हमारी लगन प्रबल हो, तब भगवान चक्षु देते हैं, फिर मार्ग बताते हैं । पहले आंख और फिर मार्ग देते हैं। पहले मार्ग प्रदान करें, लेकिन आंखे न हों तो चले कैसे ? बाद में शरण देते हैं । मार्ग में घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है । भगवान कहते हैं कि मैं तेरे साथ हूं । मोहरूपी लुटेरे तुझे लूट नहीं सकेंगे । भगवान भले ही दूर रहे, परन्तु श्रद्धा की आंखों से भक्त (कहे कलापूर्णसूरि - २ oooooooooooooooom १३९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy