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ऐसे प्रसंगो से पता चलता है कि भगवान के वहां मेरे तेरे का कोई भेद नहीं हैं ।
भगवान केवलज्ञान से जानते थे, गुरु के बहुमान से दोनों की सद्गति होने ही वाली है । और आयुष्य भी पूर्ण होने की तैयारी में ही है ।
भगवान की गति सचमुच अगम्य होती है। समझ में आया न ? मोक्ष में विलम्ब अपनी ओर से होता है, भगवान की ओर से नहीं । भगवान की आज्ञा का आप कितनी शीघ्रता से पालन करते हैं, उस पर मोक्ष - प्राप्ति का आधार है ।
भगवान की आज्ञा क्या है ? चित्त को स्फटिक तुल्य निर्मल बनाना भगवान की आज्ञा है ।
" आज्ञा तु निर्मलं चित्तं कर्त्तव्यं स्फटिकोपमम् ।"
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योगसार
वस्त्र को पूर्णत: श्वेत बनाने की कला आपके पास है, उस प्रकार क्या मन को पूर्णत: श्वेत बनाने की कला प्राप्त करनी है ? यह कैसे होगा ? ज्ञान- दर्शन आदि गुणों का सदा पोषण करते रहें । राग-द्वेष के भाव निकालते रहें । इतना करोगे तो चित्त स्फटिक के समान निर्मल बनता ही जायेगा ।
ज्ञान साबुन, दर्शन पानी एवं चारित्र घिसने की क्रिया है । राग-द्वेष आदि गन्दा पानी है जो सफाई करने से निकल रहा हैं । वस्त्र एक बार धुलने के बाद पुनः गन्दे हो जाते हैं । अपना मन पुनः गन्दा न हो यह देखना है । गन्दा हो जाये तो पुनः स्वच्छ करना है । गधा नहाकर पुनः मिट्टी में लोटता है, उस प्रकार आप न करें ।
* ज्ञान का फल समता है । समता के आधार से साधना ज्ञात होती है । चारित्र का नाम सामायिक ( समता ) है । एतावत्येव तस्याज्ञा, कर्मद्रुमकुठारिका । समस्त- द्वादशांगार्था, सारभूताऽतिदुर्लभा ॥
योगसार
समता की प्रतिज्ञा लेकर भी यदि हम उसे ताक पर रख यदि बार-बार विषमता में लोटते रहें तो ?
दें तो
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कहे कलापूर्णसूरि- २