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________________ कैसे कह सकते हैं ? जिसके कारण दूसरों की निन्दा करने की इच्छा हो, जिसके कारण अभिमान की वृद्धि हो, उस ज्ञान को ज्ञान कैसे कहा जाये ? ज्ञान के आठ आचारों में सूत्र, अर्थ और तदुभय सबसे अन्त में रखे गये, परन्तु काल, विनय, बहुमान, उपधान एवं अनिरव प्रथम रखे गये, क्योंकि काल आदि पांच भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से विनय को ही बताते हैं । काल में ही अध्ययन करना, अकाल में अध्ययन नहीं करना यह श्रुत का विनय ही है। शेष चार में तो विनय स्पष्ट प्रतीत होता ही है । * निशीथ चूणि में कहा है - ज्ञान का आठवा आचार (तदुभय) चारित्र रूप है, अर्थात् जैसा जाना वैसा जीना है। इसे ही प्रत्याख्यान परिज्ञा कहा जाता है । ज्ञपरिज्ञा के द्वारा जानना है । प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा जीवन में उतारना है । यहां ग्रन्थकार बताते है कि वे धन्य हैं, जिन्होंने ज्ञान को जीवन में उतारा है। * ज्ञान आदि सब छोडकर केवल विनय को ही लिपटे रहने वालों को जैन-शासन पाखण्डी कहता है । ३६३ पाखण्डियों में विनयवादी भी थे । वे कुत्तों, कौओं आदि सबका विनय करते थे। विनय के द्वारा ज्ञान आदि गुण प्राप्त करने हैं । विनय निःस्पृहता से करना चाहिये । उस में कामना मिल जाये तो दूषित बनता है । विनयरत्न ने विनय बहुत किया परन्तु अन्तर में स्पृहा थी, दम्भ था । इसी कारण ही वह अनन्तानुबंधी माया स्वरूप बना । * एक सुवाक्य भी यदि मैं नहीं पढ़े तो आज भी मन टेढ़े-मेढ़े पाटे पर चढ़ जाता है। जिस प्रकार नित्य भोजन की आवश्यकता होती है, उस प्रकार नित्य अभिनव ज्ञान की आवश्यकता पडती है। हमारी बुद्धि अत्यन्त कमजोर है। पढ़ा हुआ, सीखा हुआ, सतत भूलते रहते हैं । इसीलिए ज्ञान हेतु सतत पुरुषार्थ करते रहना है । ज्ञानावरणीय कर्म ध्रुवोदयी, ध्रुवबंधी एवं ध्रुव सत्ता वाला है । हम नहीं पढ़ें तब भी सतत ज्ञानावरणीय का बन्धन चालु ही रहता है। हम नींद करते हैं, परन्तु ज्ञानावरणीय नींद नहीं करता । * ज्ञान से ही नौ तत्त्व जाने जा सकते हैं । इसीलिए (कहे कलापूर्णसूरि - २wooooooooooooooooooo ८३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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