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________________ श्रीमद्भगवद्गीता कर्म ही खाद्य है, वही कर्मभुक मैं हूँ ? यह मैं क्या समझता हूँ ! यह मैं कौन हूँ ? "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो”-अतिमहान् .. असीम लोकक्षय करनेवाला. काल ही मैं हूँ ! इस समय उन लोक : मात्रके संहरणमें ( संहारमें ) प्रवृत्त हुआ हूँ ! ओ अर्जुन ! वह जो दोनों पक्षमें युद्ध करनेके लिये जो सब आये हुए दिखाई पड़ते हैं, भविष्यत्में तुम्हारे बिना उनमेंसे एक भी जीता नहीं बचेगा (क्योंकि, साधक देखते हैं कि, उन्हीं में सबका परिणाम होता है, परन्तु वह आप अपरिणामी हैं ) ॥ ३२॥ तस्मात् त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व - जित्वा शत्रन भुक्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥ भन्वयः। तस्मात् त्वम् ( युद्धाय ) उत्तिष्ठ; यशो लभस्व, शत्रन् जित्वा समृद्ध राज्यं भुक्ष्म; एते ( तव शत्रवः ) युद्धात् पूर्व एष मया ( कालात्मना ) निहताः (प्राणवियोजिताः ); हे सव्यसाचिन् । ( त्वम् ) निमित्तमात्रं भव ॥ ३३ ॥ भनुवाद। अतएव तुम ( युद्धार्थ ) उठो, यश लाभ करो; शत्रुओंको जय करके समृद्ध राज्य भोग करो; ये सब ( तुम्हारे शत्रु गण ) युद्धके पूर्व में हो हमसे निहत हो चुके हैं। हे सव्यसाचिन् । तुम इस संहार में केवल निमित्त मात्र होओ ॥ ३३ ॥ व्याख्या। अतएव अब तुम्हारी शंकाका तो कोई विषय है ही , नहीं। चिदाभासादि प्राकृतिक जो कुछ है, वह सब ही मायामुक्त अहंकारका धोखा है। जिस रोज जीव असल मैं को भूल कर नकली मैं का आश्रय कर लिया है, उसी दिनसे ही जीव मर-धम्मी हुआ है। तब तुम्हारे फिर विषण्ण होनेका कारण क्या है ? नियतिके यशसे सबहीको हमारे इस कालरूपी प्रासमें गिरना ही पड़ेगा। अतएव तुम युद्धके लिये उठो।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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