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________________ श्रीमद्भगवद्गीता आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्य न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ ३१॥ अन्वयः। उग्ररूपः (मतिफराकारः ) भवान् कः इति मे ( मह्य) आख्याहि (कथय ) ते ( तुभ्यं ) नमः अस्तु, हे देववर! प्रसीद (प्रसन्नो भव ); आद्य (पुरुष) भवन्तं विज्ञातुं इच्छामि, हि ( यस्मात् ) तव प्रवृत्ति (चेष्टा ) न प्रजानामि ॥ ३९ ।। ___ अनुवाद। हे उग्ररूप तुम कौन हो?-मुझसे कहो। तुमको नमस्कार है। हे देवधर । प्रसन्न होईये। हे आदि पुरुष तुमको मैं विशेष रूपसे जानना चाहता हूँ, क्योंकि तुम्हारी प्रवृत्ति ( काम काज ) मैं नहीं जानता ॥ ३१ ॥ - व्याख्या। उस अद्भुत अवस्थामें पड़कर साधकके मनमें युगपत् उत्साहके साथ तमोपारमें क्या है उसे जाननेके लिये बड़ी व्याकुलता उत्पन्न होती है। उससे मालूम होता है कि, यह क्या है ! सब भूतोंमें सूक्ष्म तो आकाश है; चर्मचक्षुके दृष्टिसे उस आकाशका रूप अति दूर होनेके कारण भ्रमवश नीलिमाकारका प्रकाश होता है। . परन्तु अब तो मैं अखि बन्द किये हुये हूं। सुतरां अब आकाशसे भी अतिसूक्ष्म अपरूप रूपकी लीला देखता हूँ। फिर उस सूक्ष्मको भी प्रास करके पेटके भीतर जो भर रहे हैं, वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म कौन हैं ? "आख्याहि मे"-मुझसे कहो, “को भवानुग्ररूपः" इतनी प्रखर मूर्ति तुम कौन हो ? मानवोंसे आकाश-वासी देवतागण श्रेष्ठ हैं; परन्तु तुम उन सबसे भी श्रेष्ठ हो। अतएव हे देववर ! नमोस्तुते ! हे श्रेष्ठोंके श्रेष्ठ, तुमको नमस्कार है, "प्रसीद"-प्रसन्न होईये, दया कीजिये । "विज्ञातुमिच्छामि"-विशेष कर मैं तुम्हें जानना चाहता हूँ, तुम्हारा आदि, अन्त, मध्य, प्रवृत्ति और चेष्टा मैं समझ नहीं सकता ॥ ३१ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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