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________________ ८४ श्रीमद्भगवद्गीता - "नर" कहते हैं ज्योतिहीन वस्तुको, “लोक" कहते हैं दर्शनीय जो कुछ है उसीको और "वीर" कहते हैं जिसमें बन्धन करनेवाली व्यवस्था है। इसीसे हुआ, ज्योतिहीन दृश्य मायिक पदार्थ हैं, फिर बांधने वाली शक्ति भी रखते हैं, ऐसे जो लोग हैं, वे सबही "नरलोकवीर" हैं। अब साधक ! तुम देखो, तुममें तुम्हारे अन्तःकरणका भला बुरा जो कुछ स्फूरण है, वह संस्कार-प्रवाहाकारसे कहांसे पाकर तुमको दर्शन देकर तुम्हारे अन्तःकरणमें छापका बन्धन बांधकर क्षण भरके भीतर उसी प्रलयकरी ज्योतिमें प्रवेश करता है। ये समस्त ही श्राकाश-फूलके सदृश अलीक होनेसे भी ब्रह्ममार्गके विरोधी हैं। इसलिये कहा हुआ है कि जैसे नदी जलके वेगसे बहती हुई समुद्रमें गिरकर मिल जाती है, और जैसे उसका अस्तित्व नहीं रहता, उसी प्रकार इस मायाके धोखे "नरलोकवीर" समूह तुम्हारी ज्योतिमें पड़कर अस्तित्वशून्य हो जाते हैं. अर्थात् साधकका भ्रम अज्ञानता मिट जाती है ॥२८॥ यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥२६ ।। अन्वयः। यथा समृद्धवेगाः पतंगा ( शलभाः) नाशाय ( मरणाय ) प्रदीप्त ज्वलनं ( अग्नि ) विशन्ति; तथा एव समृद्धवेगाः लोकाः (प्राणिनः ) अपि नाशाय तव वक्ताणि विशन्ति ॥ २९॥ .. ___ अनुवाद। जैसे पतंग समूह मरनेके लिये अति वेगसे अग्निमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार लोक समूह भी मृत्युके लिये अति वेगसे तुम्हारे मुखसमूहमें प्रवेश करते हैं ।। २९॥ व्याख्या। जैसे जलती हुई अग्निशिखामें पतंग समूह वेगसे जाकर जलकर भस्म हो जाता है, वैसे ही उत्पत्तिलयशील, असत्
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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