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________________ एकादश अध्याय ८१ • व्यात्ताननं ( विवृतमुख) दीप्तविशालनेत्रं त्वां दृष्ट वा प्रव्यथितान्तरात्मा (भीतचित्तः सन् ) धृति ( धैय्यं ) शमं च ( उपशमम् ) न हि विन्दामि ( न लभे ) ॥२४॥ अनुवाद। हे विष्णो ! अन्तरीक्षव्यापो, प्रज्वलित, अनेकवर्ण, विवृतमुख, दीप्तविशालनेत्र तुमको देख करके भीत चित्त में धैर्य और उपशम लाभ कर ही नहीं सकता ॥ २४ ॥ व्याख्या। हे विष्णो ! (दूधमें घृत रहनेके सदृश जो पुरुष विश्वमें व्याप्त होकर स्थित है, उसीको विष्णु कहते हैं ) जैसे आकाश को अपने गर्भके भीतर ले करके, नाना वर्णके तथापि प्रमाणके अतीत ज्वलन्त अग्निशिखामय वह जो तुम्हारा विस्तार किया हुआ मुख गह्वर है, और ज्वालामाली तेजोराशि वह जो तुम्हारी विस्तृत चक्षु है;उन्हें देख करके हमारी अन्तरात्मा भयसे व्याकुल और संकुचित हो रही है। धैर्य धरकर अपनी समताको मैं और ठीक नहीं रख सकता ॥२४॥ दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि राष्ट्रव कालानल सन्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥ अन्वयः। हे देवेश ! दंष्ट्राकरालानि च कालानलसन्निभानि (प्रलयाग्निसदृशाने ) ते मुखानि दृष्ट्वा एव दिशो न जाने ( दिङ मूढ़ोऽस्मि ) शर्म च (सुख) न लभे। भो जगन्निवास ! प्रसीद (प्रसन्नो भव ) ॥ २५॥ अनुवाद। हे देवेश ! दंष्ट्रा द्वारा विकृत और प्रलयाग्नि सदृश तुम्हारे मुख समूहको दर्शन करके मैं दिग्भ्रान्त हुआ हूँ, सुख लाभ नहीं कर सकता। हे जगन्निवास ! प्रसन्न होईये ॥२५॥ व्याख्या। हे देवेश ! तुम्हारे भयावह मुखके विकृत दन्त समूह की ज्योति जैसे प्रलयकाल वाली जगत्ध्वंसकरी विद्युत्-अग्नि-शिखा
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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