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________________ ७२ श्रीमद्भगद्गीता ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनब्जयः । प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ १४ ॥ अन्वयः। ततः ( दर्शनान्तरं ) स: धनञ्जयः विस्मयाविष्टः हुष्टरोमा ( रोमाश्चितः सन् ) देवं शिरसा प्रणम्य कृताञ्जलिः ( भुत्वा ) अभाषत ( उक्तवान् ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। तत्पश्चात् अर्जुन विस्मयापन्न और रोमाञ्चित होकर उस देवको मस्तकसे प्रणाम करके कृताश्चलि होकर कहने लगे ॥ १४ ॥ व्याख्या। साधक ! तुम देखो। जब तुम्हारी इस प्रकार अवस्था आती है, तब तुम्हारे शरीरके रोएँ कण्टकाकारसे खड़े हो जाते हैं। चर्म-चक्षुके अतीत पदार्थ जिन्हें कभी नहीं देखे थे, उन समस्तको देखकर आश्चर्यान्वित होते हो इसीसे "विस्मयाविष्ट" कहा गया है। और इस अवस्थामें तुम जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा प्रभृतिका उत्पादक कोई किसीके साथ संस्रव न रख कर, उसी परम कार्यके कारणमें विभोर हो जानेसे तब "धनब्जय” होते हो; उस समय तुम्हारे प्राण और अपानकी क्रिया इतनी सूक्ष्मरूपसे सम्पन्न होती है कि उसे तुम धारणामें भी नहीं ला सकते, और उस समय तुम सहस्रार-मूल-त्रिकोणमें उठ कर उसी अपूर्व चिदाकाशमें मिलकर आकाश सदृश रह जाते हो। वह जो प्राण और अपान की क्रिया है, उसीको प्रणाम कहा है। एक बार नीचे झुकना और एक बार ऊपर उठनेको प्रणाम कहते हैं। और वह जो तुम्हारी अवस्थिति है, वही अनिर्वचनीय है। यदि तुम उसके विषयमें कहना चाहो तो तुम्हें उस अवस्थासे उतर कर कहना पड़ता है। उस समय तुम्हारी समस्त क्रिया स्थिर रहती हैं, फिर निष्क्रियत्व भी नहीं होता, अथच इन दोनोंकी सन्धि-वाम और दक्ष उभयका संयोजन है; वाम विपथ और दहिना सपथ है; इन दोनोंके संयोगको ही सन्धि कहते हैं, और इसी सन्धिको ही कृताञ्जलि कहा गया है। वह अचिन्त्य,
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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