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________________ एकादश अध्याय देखो ), जिससे तुम मेरे योग और ऐश्वर्याको देखने पाओगे, देखो! * ॥ ८॥ सञ्जय उवाच । एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः। दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥६॥ अन्वयः। सजयः उवाच । हे राजन् ! महायोगेश्वरः हरिः एवं उक्त्वा ततः ( अनन्तरं ) पार्थाय परमं ऐश्वरं रूपं दर्शयामास ॥ ९॥ अनुवाद। संजय कहते हैं, हे राजन् ! महायोगेश्वर हरिने इस प्रकार कह कर पार्थको परम ऐश्वरिक रूप दिखलाया ॥ ९॥ व्याख्या। सं+ जय - सब्जय। अर्थात् भूतप्रपचको कारण, कार्य, गुण और अर्थके साथ परिज्ञात हो करके जो स्थिति है, वही सञ्जय अवस्था है। साधक जब आज्ञा चक्रमें रहकर निम्नदृष्टिसे भूतजगत्की लीला देखते हैं, तबही उनका विषय मात्रमें सम्पूर्ण अनासक्ति भाव रहता है; वह अनासक्ति दृष्टि ही दिव्य दृष्टि है; और वही साधककी सब्जय अवस्था है। इस अवस्थामें रह करके उस दिव्य दृष्टिसे जो कुछ अनुभव प्रत्यक्ष होता है, उसे ही "सब्जय उवाच" कह करके व्यक्त किया है। ये सब मनही मन की बात है। इस अवस्थामें मनही वक्ता, तथा मनही श्रोता है; वक्ता अवस्थामें सब्जय और श्रोता अवस्थामें धृतराष्ट्र--देहराज्यके सुख दुःखका भोक्ता होनेसे राजा है। * ८ अ8 में दोक्षाका समस्त उपदेश करनेसे भी प्रकृत दीक्षा-ज्ञानचक्षुकी उन्मीलन क्रिया यहां ही हुई, क्योंकि दाक्षाका अर्थफल प्रत्यक्षीकरण यहाँसे ही प्रारम्भ हुआ है। दीक्षाका इस अर्थ फलको लक्ष्य करके ही गुरुदेवको-'चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः' यह कह कर प्रणाम किया जाता है ॥८॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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