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________________ एकादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥ अन्धयः। अर्जुनः उवाच । मदननुग्रहाय ( ममानुग्रहाय शोकनिवृत्तये ) परमं (निरतिशयं ) गुह्य (गोप्यं ) अध्यात्मसंज्ञितं ( आत्मानात्मविवेकविषयं) यत् वचः त्वया उक्त, तेन मम अयं मोहः ( अह हन्ता एते हन्यन्ते इत्यादिलक्षणभ्रमः विगतः ( विनष्टः ) ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं, मुझको अनुग्रह करनेके लिये तुम जो परम गुत्य अध्यात्मसंज्ञित (आत्म-अनात्मविवेकविषयक ) वाक्य कहे हो, उससे हमारा यह मोह विनष्ट हो चुका ॥ १॥ व्याख्या। [ भगवानने पूर्व अध्यायके अन्तमें 'मैं इन समस्त जगलको एकांशसे धारण कर रहा हूँ' यह बात कहा, उससे वह जो विश्वरूपी है, वही भाव व्यक्त हुआ। अर्जुन भगवानका उस विश्वरूप प्रत्यक्ष करनेके लिये आनन्द भरा हुआ मानसमें एकके बाद एक करके चार श्लोकोक्त वाक्य समूह कहते हैं । "मैं" के वह जो अणुके ग्रहण करनेके निमित्तस्वरूप परम गुह्य वाक्य है, जिसे कोई कभी बाहर लाकर प्रकाश नहीं कर सकते, जो अध्यात्मसंज्ञित अर्थात् आत्मविषय और अनात्मविषयोंके ज्ञापक हैं, जिसे त्वं न सज करके अहंमें रहनेसे कहा नहीं जा सकता, ( यह जो पूर्व पूर्व अध्यायमें प्रत्यक्ष किया-सुना हूँ ), उससे मायाका मोह तो मेरा कट गया ।।१॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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