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________________ दशम अध्याय व्याख्या। गुण, बल, प्रभाव, ऐश्वर्य, सम्पत्तिसे सजाया हुआ भुवनकोषमें जो कुछ है, उसे हमारे ही तेजके अंशसे प्रकाशित जानना ॥४१॥ अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥४२॥ अन्वयः। अथवा हे अर्जुन ! तव एतेन बहुना ज्ञातेन किं (प्रयोजनं ) ? ( यस्मात् ) अहं इदं कृत्स्नं जगत् एकांशेन विष्टभ्य ( धृत्वा ) स्थितः ॥ ४२ ।। अनुवाद। अथवा हे अर्जुन ! इस प्रकार बहुज्ञानसे तुम्हें प्रयोजन क्या है ? (जिस हेतु ) में इस समग्र जगतको एकांशसे धारण कर रहा हूँ ॥ ४२ ॥ व्याख्या। हे साधक ! इस अनादि अनन्तको सादि सान्तसे और समझनेका कोई प्रयोजन नहीं। दृढ़ करके मान लो, यह विश्व कोष महत्तत्वसे उत्पन्न है। भसीम ब्रह्म महत्तत्वमें ठीक जैसे गोष्पद का जलमें प्रतिविम्वित आकाश-छाया है, तैसेही तुम, हम प्रभृति नाना भूतोंमें भी वही ब्रह्म प्रभासित है। जैसे आकाशके गर्म में सागरान्त पृथिवो अपार जलका (जलमय) बेडसे यह द्वीप, वह द्वीप नाम लेकर रहनेसे भी नीचे नीचेमें जलके भीतर जलसे जल सबके साथ सब मिलकर एक हो रहा है, तथापि ( अज्ञानतासे ) एक समझने न देकर नानात्वका धोखा लगाकर सबको बुद्धिहीन बनाता है, असल में जैसे एकही एक है, वैसे भाई ! असीम ब्रह्मके एकांशमें मायाकी बेड़का फटा जगत् टूटा सरीखे धरा रहा है। ___ जबतक ज्ञान-दृष्टिका विकाश नहीं होता, तबतक ही पृथक् भाव से भगवतूसत्ता समझना होता है, तबतक ही बहुज्ञान रहता है; ज्ञानदृष्टिके विकाश होनेसे और पृथक् दृष्टि नहीं रहती, बहुज्ञान भी नहीं रहता, उस समय एकदृष्टि वा समदृष्टि आती है; तब इस अखिल जगत्को एक भगवत् अंश कह करके ही प्रत्यक्ष होता है। जैसे
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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