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________________ दशम अध्याय ५६ अनुवाद। दमन करने वालोंके भीतर में दण्ड, जयेच्छुकोंके भीतर मैं नीति, गुल्यों के भीतर में मौन और ज्ञानवानों के भीतर में ज्ञान हूँ ॥ ३८ ।। व्याख्या। 'दण्डो दमयतामस्मि'। दुन्तिोंको शासन करनेके लिये जितने प्रकारके उपाय हैं, उनके भीतर 'दण्ड' ही मैं हूँ । साधक ! तुम देखो, तुम्हारे शरीरमें इन्द्रिय, इन्द्रियग्राह्य विषय, काम क्रोधादि जो कुछ अन्तःकरण वृत्ति हैं, ये समस्त ही दुर्दान्त हैं। इन सबको शासनमें लानेका उपाय एकमात्र प्राणायाम है। अतएव जितने प्रकारके शासन-उपाय हैं, उनके भीतर प्राणायाम रूप दण्ड ही 'मैं' हूँ, जिसके बलसे समस्त स्थिर होती है, कैवल्यस्थितिकी प्राप्ति भी होती है। "नीतिरस्मि जिगीषता"। जयेच्छुकोंके भीतर 'नीति' मैं हूँ। परको (दुसरेको ) जिससे प्रायत्त किया जाय, उखीको नीति कहते हैं। कर्मके कौशलका नाम नीति है। यह कर्म ही (गुरूपदिष्ट ) चित्त-पथमें प्राणका परिचालन है। इसीमें अहंत्व प्रतिष्ठित है। "जिगीषु” उसको कहते हैं, जो मायाको जय करनेकी इच्छा करें। __'मौनं चैवास्मि गुह्यानां'। जगत्में जितने प्रकारके गोपनीय पद हैं, उनके भीतर ब्रह्म-विलास रूप जो तुष्टि है, उसीको “मौन” कहते हैं। अतएव वह मौन 'मैं' हूँ। "ज्ञानं ज्ञानवतामह' । ज्ञानियोंके आत्मज्ञान ही 'मैं' हूँ ॥ ३८ ॥ यञ्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत् स्यान्मया भूत चराचरम् ॥ ३९ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यत् च सर्वभूतानां अपि बीजं ( प्ररोहकारणं ) तत् अहं ( यतः) मया विना यत् स्यात् ( भवेत् ), तत् चराचरं भूतं न अस्ति ॥ ३९ ।। . अनुवाद। हे अर्जुन ! सर्वभूतोंके जो बीज ( प्ररोहकारण ) है, सो मैं हूँ, ( जिस हेतु ) चर किम्बा अचर ऐसा कोई भूत नहीं, जो मेरे बिना हो सके ॥३९॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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