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________________ दशम अध्याय "पाण्डवानां धनञ्जयः”–पाण्डु राजाका क्षेत्रज पुत्रोंके भीतर "धनञ्जय”। जिसने धनपति कुवेरको जय करके सोनेकी चम्पा लाकर कुन्तीसे शिवपूजा कराई थी, शिवजीने उन्होंको धनञ्जय नाम दिया था। (पाण्डव-१म अ. १म श्लोक देखो)। पाण्डव शब्दसे तीक्ष्ण बुद्धिशाली ज्ञानीको समझाता है। उस ज्ञानीके भीतर 'मैं' धनञ्जय हूँ। जीवके धन छः हैं, जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा । जो पुरुष इन धनोंको जय करता है, वही धनञ्जय है। अर्जुन नर ऋषि है, तपस्यासे उन छोंको जय किये हैं; जो जिसको जय करे वह उसका नियामक है। अतएव अर्जुन इन छोंके नियन्ता है। नियन्ता भी फिर मेरे बिना और कोई नहीं है ; इसलिये धनब्जय भी 'मैं हूँ। __"मुनीनामप्यहं व्यासः'। मुनियोंके भीतर मैं 'व्यास' हूँ। व्यास-विभागकर्ता । ' चित्तके निम्नस्तरमें अहंकार है, इस अहंकारसे ही विभागकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् अहं ममत्वका प्रचार होता है। इसलिये मैं 'व्यास' हूँ (१० अः १३वा श्लोकमें व्यास शब्द की व्याख्या देखो)। अहं शब्दसे मैं बिना और किसीको नहीं समझाता। कार्य्यतः व्यास भी 'मैं हूँ। "मुनिः संलोनमानसः” मनोवृत्ति जब सम्यक लीन हो रहती हैं (जैसे चीनी घुली हुई इक्षुरस'), तब मुनि शब्दका अर्थ प्रकाश होता है। यही परिपूर्ण अवस्था है। इस अवस्थामें जब वृत्तिका प्रारम्भ होता है, तबही परिपूर्णत्वमें ग्लानि अर्थात् नानात्व जनित विभाग आता है। यह जो विभागका ज्ञान है, उसी ज्ञानको व्यास कहते हैं। और उस ज्ञानकी उत्पत्तिके पहले वह जो परिपूर्ण अवस्था है, वही मैं अवस्था; और उस 'मैं' में ही वह भेदज्ञान रहता है, 'मैं' को छोड़कर अलग रह नहीं सकता, इस कारण वह भी 'मैं हूँ। इसलिये मैं मुनि-अवस्थाके भीतर व्यासअवस्था हूँ।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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