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________________ श्रीमद्भगवद्गीता अक्षरों में लघुगुरु वर्ण करके सजाई हुई है, इसलिये इसको छन्द कहते हैं। जितने प्रकारके छन्द हैं, गायत्री उन सबके भीतर प्रधान है । क्योंकि इस छन्दका ऐसा ही प्रभाव है कि, गायत्रीमन्त्रका गान करने से सर्ववेदवित होकरके ब्रह्मस्वरूप लाभ होता है; और किसी छन्दसे ऐसा नहीं होता। इसलिये मैं गायत्री हूँ। . मासोंके भीतर 'मार्गशीर्ष' मैं हूँ। मृगशिरा नक्षत्रमें सूर्यके भोगकालको मार्गशीर्ष मास कहते हैं । जब लोक-जगत में प्रथम काल का बोधक ब्योतिषका प्रकाश हुआ अर्थात् जब अतीत अनागतादि रूपसे काल मनुष्योंके बोधगम्य हुआ, तबही दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष प्रभृति श्रेणी विभाग हुए। उस समय प्रथम वर्ष जिस माससे गिनना शुरू (प्रारम्भ ) हुआ था, उसीको 'अग्रहायण' कहते हैं । 'अन' शब्दमें प्रथम हायन शब्दमें वर्ष है। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ'; वही ज्ञान इस अगहन वा मार्गशीर्ष महीनेसे प्रथम प्रकाश हुआ था इसलिये जितने मास हैं उनमें मार्गशीर्ष मैं हूं। 'ऋतूनां कुसुमाकरः'। कुसुम है वृक्षका सूक्ष्मतम अंश; वृक्षके तुलनामें मनुष्योंका कुसुम ज्ञान है। नाति-शीत नाति-उष्ण होनेके लिये वसन्त ऋतुमें वृक्ष राजि सरस होनेसे उन सबमें इस सूक्ष्मांशका विकाश होता है; उससे उनकी सौन्दर्य वृद्धि होती है, प्रकृतिकी भी शोभा बढ़ जाती है, फिर मनुष्योंमें भी शारीरिक स्फूर्ति वृद्धिके साथ ज्ञान-कुसुमका विकाश होता है, अर्थात् इस समय मस्तिष्क स्वभावतः पुष्ट और स्निग्ध होनेसे दूसरे ऋतुओंसे साधनामें अन्तर्लक्ष्य सुगम हो जाता है। इसलिये वसन्त ऋतुको कुसुमाकर कहते हैं, और इसीलिये वसन्तको ऋतुराज कहते हैं। पदार्थों का सूक्ष्मतम अंश ही आत्मचैतन्यका अंश-विकाश वा विभूति है। वही अंश-विकाश इस वसन्त ऋतुमें प्रस्फुटित होता है इसलिये वसन्त ऋतु ही भगवानकी विभूति है। यह तो बाहरकी बातें हुई। अब भीतरमें साधनामें
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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